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फोर्ट विलियम कॉलेज और विलियम प्राइस
११३ आना के अनुसार गिलक्राइस्ट यहाँ का मासिक कार्य-विवरण ('जर्नल') सरकार के पास भेजते थे। कॉलेज की स्थापना के समय उन्हें हिन्दुस्तानी विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया।
हिन्दी साहित्य के अब तक लिखे गये इतिहानो में लल्लूलाल और उनके 'प्रेमसागर' के नाते गिलक्राइस्ट का हिन्दी गद्य के उन्नायक के रूप में नाम लिया जाता रहा है, किन्तु यदि हम उनके भाषा-सम्बन्धी विचारो का अध्ययन करें तो उनकी वास्तविक स्थिति का पता चलते देर न लगेगी। उन्होने अपने भाषा-सम्बन्धी विचार 'ऑरिएटल सेमिनरी' के 'जर्नल' के प्रथम विवरण तथा अपने ग्रन्यो में प्रकट किये है।
गिलक्राइस्ट का हिन्दुस्तानी से उस भाषा से तात्पर्य था जिसके व्याकरण के सिद्धान्त, क्रिया-रूप आदि, तो हलहंड द्वारा कही जाने वाली विशुद्ध या मौलिक हिन्दुस्तानी ('प्योर और ओरिजिनल हिन्दुस्तानी') और स्वय उनके द्वारा कहीं जाने वाली 'हिन्दवी' या 'व्रजभाषा' के आधार पर स्थित थे, लेकिन जिसमें अरबी-फारसी के सज्ञा-गब्दो की भरमार रहती थी। इस भाषा को केवल वे ही हिन्दू और मुसलमान वोलते थे जो शिक्षित थे और जिनका सम्बन्ध राज-दरवारोमेथा,या जो सरकारी नौकर थे। लिखने में फारसी लिपि का प्रयोग किया जाता था। इसी हिन्दुस्तानी को उन्होंने हिन्दी', 'उर्दू, उर्दुवी' और 'रेख्ता' भी कहा है। 'हिन्दी के शब्दार्थ की दृष्टि से इस शब्द का प्रयोग उचित है। लल्लूलाल की भाषा हिन्दी नहीं, हिन्दवी' थी। 'हिन्दी' के स्थान पर 'हिन्दुस्तानी' शब्द उन्होने इसलिए पसन्द किया कि 'हिन्दुवी', 'हिन्दुई' या 'हिन्दवी' और 'हिन्दी' शब्दो से, जो बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं, कोई गडवडी पैदा न हो नके। यह 'हिन्दवी भाषा केवल हिन्दुओ की भाषा थी। मुसलमानी आक्रमण से पहले यही भाषा देश में प्रचलित थी। गिलक्राइस्टने 'हिन्दवी' और 'हिन्दुस्तानी का यह भेद करतीन प्रचलित शैलियाँ निर्धारित की-(१) दरवारी या फ़ारसी शैली, (२) हिन्दुस्तानी शैली और (३) हिन्दवी शैली। पहली शैली दुरुह, अतएव अग्राह्य थी। तीमरी शैली गॅवारू थी। इसलिए उनको दूसरी शैली पसन्द आई। इस शैली में दक्षता प्राप्त करने के लिए फारसी भापा और लिपि का ज्ञान अनिवार्य था। मीर, दर्द, सौदा आदि कवियो ने यही शैली ग्रहण की थी। हिन्दुस्तानी में पारिभाषिक शब्दावली भी इस प्रकार रक्खी गई, जैसे, इस्तिसार', 'इतिखाब', 'मफूल', 'सिफ़त', 'हर्फ जर्फ़', 'जर्फी जमान', 'जर्फी मुकान' आदि । वाक्य-विन्यास भी बहुत-कुछ फारसी का ही अपनाया गया।
गिलक्राइस्ट के विचारो तथा अपने ग्रन्यो में दिये गये हिन्दुस्तानी भाषा के उदाहरणो' का अध्ययन करने पर हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हिन्दुस्तानी से गिलक्राइस्ट का तात्पर्य था
हिन्दवी+अरवी+फारसी-हिन्दुस्तानी इमी भाषा को मुनीति वावू ने 'मुसलमानी हिन्दी' अथवा 'उर्दू' कहा है। लिपियो में देवनागरी लिपि को गिलक्राइस्ट ने अवन्य प्रश्रय दिया, किन्तु इससे भाषा के रूप और उसकी सास्कृतिक पीठिका में कोई अन्तर नहीं पड़ता। वस्तुत. उनके विचारो तथा व्यवहार में प्रयुक्त भाषा से उर्दू गद्य की उन्नति हुई, न कि हिन्दी गद्य की ।' लल्लूलाल कृत 'प्रेमसागर', सदल मित्र कृत 'नासिकेतोपाख्यान' तथा इन ग्रन्यो के अनुरूप भापा के प्राप्त अन्य स्फुट उदाहरणो का मुख्य प्रयोजन सिविलियन विद्यार्थियो को हिन्दुस्तानी की आधारभूत भाषा ('हिन्दवी') से परिचित कराना था। 'प्रेममागर', 'नासिकेतोपाख्यान' आदि रचनाओ ने हिन्दुस्तानी के ज्ञानोपार्जन में गारे-चूने का काम दिया। गिलक्राइस्ट के समय में तथा उनके वाद 'हिन्दुस्तानी' में प्रकाशित ग्रन्यो की संख्या ही अधिक है। हिन्दी (आधुनिक अर्थ मे) अथवा 'हिन्दवी' में रचे गये ग्रन्यो में प्रेमसागर', 'राजनीति' और 'नासिकेतोपाख्यान' का ही नाम लिया जा सकता है। 'नासिकेतोपाख्यान' तो कभी पाठ्य-क्रम में भी नहीं रखा गया। ये तथ्य भी हमारे कथन की पुष्टि करते है।
'देखिए, 'हिन्दुस्तानी', भाग १०, अंक ४, अक्टूबर १९४० में 'गिलक्राइस्ट और हिन्दी' शीर्षक लेख । 'गिलक्राइस्ट कृत "दि ओरिएंटल लिग्विस्ट' (१८०२ स०) भूमिका, पृ० १ ।। 'एडवर्ड वालफर : 'दि इन्साइक्लोपीडिया ऑव इडिया' (१८८५ ई०), जिल्द १, पृ० १२०३