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प्रेमी-अभिनंदन ग्रंथ
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सज्जन को लिखा गया कि वह कृपया अपना हिसाव देखे । माधारणत उन सज्जन ने लिख दिया कि हिमाव तो साफ हैं और वाक़ है, लेकिन प्रेमीजी की ओर से उन्हें मुझाया गया कि तीन-चार वर्ष पहले की हिमाव वही देसे, हमारे पास एक हजार की रकम ज्यादा या गई हैं। इस तरह अपनी चोर से वढी रकम को पूरे प्रयत्न मे जानने के बाद कि वह यथार्थ में किसकी है और मालूम होने पर तत्काल उमे उन्ही को लोटाये बिना प्रेमीजी ने चैन नही लिया । यह श्रप्रमत्त ईमानदारी सावना से हाथ आती है । पर प्रेमीजी का वह स्वभाव हो गई है ।
उनका जीवन अन्दर से धार्मिक है । इसी से ऊपर से उतना धार्मिक नही भी दीखे । यह धर्म उनका श्वास है, स्वत्व नही । प्राप्त कर्तव्य मे दत्तचित्त होकर बाहरी तृष्णाओ और विपदाओ से प्रकुण्ठित रहे हैं । पत्नी गई, भर - उमर म पुत्र गया । प्रेमीजी जैमे सवेदनशील व्यक्ति के लिए यह वियोग किसी से कम दुम्मह नही था । इम विछोह की वेदना के नीचे उन्हें बीमारी भी भुगतनी हुई, लेकिन मदा ही अपने काम मे से वह धैर्य प्राप्त करते रहे । प्राप्त मे मे जी को हटा कर अप्राप्त ग्रथवा विगत पर उन्होने अपने को विशेष नहीं भरमाया । अन्त तक काम में जुटे रहे और भागने की चेष्टा नही की । मैंने उन्हें अभी इन्ही दिनो काम में व्यस्त देसा है कि मानो श्रम उनका धर्म हो और धर्म उनका श्रम |
ऐमे श्रमशील और सत्परिणामी पुरुष के सम्पर्क को अपने जीवन में में अनुपम मद्भाग्य गिनता हूँ ।
दिल्ली ]