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________________ ५३ इतिहासकार 'प्रेमीजी' भाषा में पुराणो की रचना करके जन-साधारण के लिए धर्मकथा को मार्ग खोल दिया था। दिनोदिन प्रकाश मे आने वाली कृतियाँ इनके साहित्यिक क्षेत्र को विस्तृत ही करती जा रही है। इनके तथा स्वयभू, त्रिभुवन स्वयभू प्रभृति प्राकृत कवियो के विषय में जो कुछ लिखा गया है उसमे पता चलता है कि प्रेमीजी ने अपभ्रश भापानो का कितना मूक्ष्म अध्ययन किया है। प्रेमीजी के उद्योग से ही कवि चतुर्मुख' की स्थिति स्पष्ट हो सकी है। अपभ्रश के अध्ययन-मार्ग के तो प्रेमीजी एक प्रकार मे प्रवर्तक ही है। कविराज हरिचन्द्र, वादभिसिंह,' धनजय, महासेन, जयकीति, वाग्भट आदि कवि थे। इनकी रचनाएं मस्कृत साहित्य की अमूल्य निवियाँ है । जहाँ धनजय का 'द्विसन्धान काव्य' समस्त कवियो को निरस्त्र कर देता है, वहां हरिचन्द्र का 'धर्मगर्माभ्युदय' सरलता से " सन्ति त्रयो गुण" को चरितार्थ करता है। पूज्यपाद देवनन्दि' तया मुनि शाकटायन' शब्दशास्त्री थे। मल्लिषेण" तथा वादिचन्द्र' नाटककार थ। टीकाकार श्रुतसागर", नीतिवाक्यामृत के रचयिता मोमदेवसूरि" तया प्राध्यात्मरसवेत्ता आचार्य शुभचन्द्र" अपने ढग के निराले विद्वान थे। इनकी कृतियां अपने-अपने विषय की अनुपम रचनाएं है । इन सव को प्रकाश में लाने का श्रेय प्रेमीजी को ही है। अन्य परिचय-कितने ही सस्कृत तया प्राकृत ग्रन्यो का गम्भीर अध्ययन करके प्रेमीजी ने उनका महत्त्व प्रकट किया। इस प्रकार के अध्ययन की बदौलत ही आराधना' की अनेक टीकाएं प्रकाशित हुई है। 'नीतिवाक्यामृत' का अनुशीलन केवल प्रेमीजी की उदार ममालोचक वृत्ति का ही परिचायक नहीं है, अपितु अन्य की महत्ता को भी सुस्पष्ट कर देता है। उन्होने इसकी कौटिल्य के अर्थशास्त्र के साथ जो तुलना की है, वह तो अपने ढग की एक ही है। इसी प्रकार लोकविभाग तिलोयपण्णत्ति तया जम्बूद्वीप पण्णत्ति के विश्लेषण जैनाचार्यों की तीक्ष्ण भौगोलिक अभिरुचि के परिचायक है। प्रेमीजी की बहुमुखी साहित्यिक एव ऐतिहासिक प्रवृत्तियो का इस लेख में विस्तृत परिचय देना सम्भव नही। प्राप्य, अप्रकाशित तथा अप्राप्य ग्रन्थो का परिचय देकर उन्होने साहित्य की महान सेवा की है। वे केवल सस्कृत तया प्राकृत के कवियो को ही ख्याति में नहीं लाये है, कर्णाटक आदि प्रान्तीय भाषाओ के कवियो को भी उन्होने प्रकाशित किया है । अतएव प्रेमीजी की कृतियो को स्व० विण्टरनित्य के जैन-साहित्य के इतिहास" का पूरक ही नही, परिवर्द्धक भी कहना उचित ही होगा। 'जनसाहित्य और इतिहास पृ० ३७० जैनसाहित्य और इतिहास पृ० ४७२ 'क्षत्रचूणामणि (भूमिका) १९१० "जनसाहित्य और इतिहास पृ० ४६४ "जनसाहित्य और इतिहास पृ० १२३ 'अनेकान्त १९३१ "जनसाहित्य और इतिहास पृ० ४८२ 'जनहितैषी १९२१ 'जनहितैषी १९१६ "विद्वद्रत्नमाला पृ० १५४ "जनसाहित्य और इतिहास पृ० २६७ ११ जनहितैषी १९२१ "जनसाहित्य सशोधक १९२३ "अनेकान्त १९४० "जनहितैषी १९१७ "जनसाहित्य और इतिहास पृ० २५१ "हिस्ट्री ऑव इण्डियन लिटरेचर कलकत्ता वि० वि० १९३३ “कर्णाटक जैन कवि, बम्बई १९१४ पहिस्ट्री प्राव इण्डियन लिटरेचर । वि०वि१९३३
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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