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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ
पू२
जैन साहित्य का इतिहास-जैनसाहित्य का भण्डार अत्यन्त समृद्ध है। अत यह देख कर आश्चर्य होता है कि प्रेमीजी ने (१) साहित्यकारो के इतिहास, (२) ग्रन्थो का विशेष अध्ययन तथा (३) कतिपय ग्रन्थो की व्यापक तुलना करने के लिए पर्याप्त समय कहाँ से निकाला.होगा! इस पर भी विशेषता यह कि प्रेमीजी की लेखनी ने एक-दो विषय के विद्वानो के ही शब्द-चित्र नही खीचे है, अपितु धर्मशास्त्री, नैयायिक, वैयाकरण, समालोचक तथा स्रष्टा कवि, पुराण-निर्माता, टीकाकार, आयुर्वेदशास्त्री, तान्त्रिक आदि सभी के चरित्र उनकी शोध और लेखनी के सहारे मूर्तिमान हुए है। ___साहित्यकारो का इतिहास-'कवि चरितावली' सर्व प्रथम विद्वद्रत्नमाला' के रूप में प्रकाश में आई थी। इममें पुराणकार महाकवि जिनसेन गुणभद्र, धर्मशास्त्री आशाघर तथा अमितगति, सर्वशास्त्र चक्रवर्ती वादिराज, नाटककार मल्लिषेण तथा नैयायिको के दीक्षागुरु स्वामी समन्तभद्र के जीवन सकलित है। इन निवन्धो में प्रेमीजी ने प्रत्येक आचार्य की जन्मभूमि, विद्यास्थल तथा ग्रन्थ निर्माण क्षेत्र का वर्णन किया है, विविध स्रोतो के सहारे पूर्वजो का परिचय दिया है और उनका समय-निर्धारण किया है। साथ ही उनकी प्राप्य-अप्राप्य रचनाओ का भी परिचय दिया है। तत्पश्चात् यह धारा 'जन-हितषी' तथा अन्य शोधक पत्रो के लेखो तथा ग्रन्थमाला के ग्रन्यो की भूमिका के स्प मे प्रवाहित हुई। फलस्वरूप आचार्य वीरसेन', अमृतचन्द्र, शिवार्य, अमितगति, पाशाधर आदि धर्मशास्त्रकार विद्वानो के इतिहास निर्मित हुए है। आचार्य वीरसेन की कृतियां जिस प्रकार महत्त्वपूर्ण है, उसी प्रकार उनके सम्बन्ध की जो सामग्री प्रेमीजी ने सकलित की है, वह भी, विशाल और बहुउपयोगी है। पडिताचार्य आशाधर जी के विषय में प्रेमीजी ने जो कुछ लिखा है, वह उनके पाडित्य पर ही प्रकाश नही डालता, अपितु अन्य लेखको के लिए उपयोगी सामग्री भी उपस्थित करता है। उन्होने अध्यात्म-रहस्य, योगशास्त्र, राजमिती विप्रलम्भ आदि सभी विषयो पर सफलतापूर्वक लेखनी चलाई थी।
स्वामी समन्तभद्र, आचार्य प्रभाचन्द्र, देवसेनसूरि, अनन्तकीर्ति आदि नैयायिक थे। प्रेमीजी के लेखो को देखने पर इनकी विद्वत्ता का मानचित्र सामने आ जाता है। आचार्य प्रभाचन्द्र ने सभी विषयो पर लिखा है, किन्तु उनकी कीर्ति-पताका न्याय के ग्रन्थो पर ही लहराती है।
, आचार्य जिनसेन,, गुणभद्र," चामुण्डराय' आदि अपने समय की अनुपम विभूतियां थी। इनका प्रभाव केवल साहित्यिक क्षेत्र में ही नहीं प्रतिफलित हुआ था, अपितु सर्वव्यापी था। प्राचार्य जिनसेन की पुराण-निर्माण शैली तो शतियो तक पुराण-निर्माताओ के लिए आदर्श थी। आचार्य पुष्पदन्त" तथा विमलसूरि" ने प्राकृत
'वम्बई, जनमित्र कार्यालय, १९१२ जनहितैषी १९११ जनहितैषी १९२० "अनेकान्त १९३१ 'जनहितैषी १६०८ 'जनहितैषी १९०६ "विद्वद्रत्नमाला पृ० १५६ 'अनेकान्त १९४१ 'जनहितैषी १९२१
जनहितैषी १९१५ "जनहितैषी १९११
जनहितैषी १९१६ "जनसाहित्य सशोधक १९२३
जनसाहित्य और इतिहास पृ० २७२