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प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ
यथार्य में विधि और प्रतिषेध को कम से और एक साथ कथन करने की अपेक्षा से तीसरे और चौथे भग की सृष्टि हुई है । अत पहले दोनो का एक साथ कथन करके बाद को क्रम से कथन किया जाये, या पहले क्रम से उल्लेख करके पीछे एक साथ किया जाये तो वस्तु विवेचन मे कोई अन्तर दृष्टिगोचर नहीं होता। किन्तु अवक्तव्य को चतुर्थ भग पढने का ही अधिक प्रचार पाया जाता है। सप्तभगीवाद के खडन में लेखनी चलाने वाले शकराचार्य और रामानुज ने भी इसी पाठ को स्थान दिया है। .
स्याद्वाद और उसके फलिताश सप्तभगीवाद के विषय मे जैनाचार्यों के मन्तव्यो का दिग्दर्शन कराकर हम इस निवन्ध को समाप्त करते है।
काशी]
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