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समाज-सेवा का प्रावर्श
६५१ है। किन्तु मिथ्यात्व का अनादि सवध, अज्ञान मोह की प्रबलता जैनो को सीधे रास्ते पर, समाज-सेवा की सीधी सडक पर आने से रोक रही है। श्रावक के पट आवश्यक कर्म रूढि मात्र, दिखावे, मन समझाने और आत्मवचना के तौर पर किये जाते है । श्रावको के दान की प्रणाली का प्रवाह रेतीले, बजर मैदानो में हो रहा है। धर्म-प्रभावना के नाम पर जो द्रव्य सर्च होता है, उसका सदुपयोग नहीं होता। धर्म की हसी होती है। जैन रथोत्सव के अवसरो पर कही तो सरकारी रोक लगा दी जाती है, कही बाजार में दुकानें बन्द हो जाती है और कलकत्ता जैसे लवे और तडक-भडक के जलूस पर भी मैंने देखा है कि अजैन जनता पर जैनत्व का प्रभाव अथवा महत्व अकित नहीं होता। जनता केवल तमाशे के तौर पर जलूम देखने को उसी भाव से जमा होती है, जैसे वह किसी सेठ की वरात, किसी राजा की मवारी, किसी हाकिम या किमी फोजी पलटन के जलूस को देखने कौतूहलवश एकत्र हो जाती है । कहने को दिगम्बर-श्वेताम्बर रथोत्सव सम्मिलित होता है । वास्तव में प्रागे श्वेताम्बरीय जुलूस निकल जाता है, तब तक दिगम्बरीय जुलूस एक नाके पर रुका रहता है । दोनो के बीच में काफी फासला होता है। अच्छा होता यदि ग्वेताम्बर-दिगम्बर मूर्ति एक ही रय में विराजमान होती। दिगम्बर-श्वेताम्बरी उपदेशक भजन-टोलियां मिली-जुली चलती, उपदेगी भजन स्पष्ट स्वर में जनता को सुनाये-गमझाये जाते और दोनो मप्रदाय के वाजे, झडियाँ, पालकियाँ और भक्न-जनसमूह यादि एमे मिले-जुले होते कि अजन जगत् को दोनो मे भेद प्रतीत न हो पाता। दोनो जुलूस एक ही म्यान पर पहुंचते और दोनों सम्प्रदाय के पडितो के व्याख्यान, प्रीति-भोज सम्मिलित होते।
उन स्थानों में जहां पर्याप्त मरया में जिनालय मौजूद है, नये मदिर बनवाने, उनको सजाने और नई मूर्तियो की प्रतिष्ठा करने का शौक भी बहुत बढता जा रहा है, जिसमें जन-समाज का लाखो रुपया खर्च हो जाता है और परिणाम यह होता है कि ममाज में भेद-भाव बढ जाता है। लोग मदिरो में भी ममकार वुद्धि लगा लेते है। अपनेअपने मोहल्ले, अपनी-अपनी पार्टी, अपने-अपने दलके मदिर अलग हो जाते है । समाज सगठन का ह्रास हो जाता है।
रेल की मस्ती सवारी के कारण तीर्थ यात्रा का शौक भी वढ गया है । वास्तव मे तीर्थयात्रा के नाम से नगरो की मैर, अन्य-विक्रय-व्यापार, विवाहादि सवध आदि ऐहिक कार्य मुख्यतया किये जाते है और भावो की विशुद्धता, वैराग्य का प्रभाव, निवृत्ति मार्ग की पोर झुकाव तो विरले ही मनुष्यो को प्राप्त होता है । मदिरो मे और सस्यानो में जो दान दिया जाता है, उसका बदला नामवरी हामिल करके अपनी शोहरत फैला कर प्राप्त कर लिया जाता है। उन दान मे पुण्यप्राप्ति या कर्म-निर्जरा समझना भुलावे में पडना है । स्थानीय पाठशाला, पुस्तकालय, वाचनालय, पोपचालय, चिकित्मालय, विद्यालय, अनाथालय, धर्मशाला आदि सस्था स्थापित कर के भी लोग स्वार्थ साधन करते है। थोडे दिनो की ऐहिक स्याति प्राप्त करते है। इन विविध संस्थानो में साम्प्रदायिक, स्थानीय, जातीय, प्रात्मीय, अहकार, ममकार का विणेप पुट रहता है। उनके समुचित प्रवध की तरफ बहुत कम लक्ष्य दिया जाता है। ऐमी कोई विरली ही सम्था होगी, जिममे दलवदी, अधिकार प्राप्ति की भावना के दोप प्रवेश नहीं कर गए है। दिगम्बरीय समाज में भी तीन मस्या, महासभा, परिपद्, सघ नाम से पृथक्-पृथक् काम कर रही है। वास्तविक समाज-मैया के भाव को लिए हुए जैन-समाज यदि केन्द्रीय मगठन करके समाज-सेवा भाव से प्रेरित, आत्मसमर्पण करने वाले कार्यकर्ता निर्वाचित करके प्रान्तीय, स्थानीय समाजोद्धार और धर्म-प्रचार का कार्य प्रारभ कर दे तो समाज के कितने ही मनुष्यो को उच्चगोत्र और शायद तीर्थकर कर्म का वध भी हो जावे, क्योकि तीर्थकरकर्म जगत-हितकर भावना का ही फल है। साघु, उपाध्याय, प्राचार्य, केवली, तीर्थकर, जगत का उत्कृष्ट और अमित उपकार करते है और निस्पृह होकर ऐसा करते है। यह सव समाज-सेवा ही तो है।
गृहस्थ श्रावक के पट् आवश्यक कर्मों में दान भी है। दान समाज-सेवा ही का पर्यायवाची शब्द है । दान का अर्थ है-पर-उपकार । अन्य का भला करना । प्रत्येक अवस्था में दान देना मनुष्य का कर्तव्य, और मुख्य कर्तव्य है।
दान समझ कर ही करना चाहिए। पान और वस्तु के भेद से दान का फल भला और बुरा दोनों प्रकार का हो सकता है। हिंसा का उपकरण, छुरी, कटारी, तलधार, बदूक दान मे या उवार मागी देना या वेचना अशुभ