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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ कर्म-बध का ही कारण होगा। व्याध, वधिक, वूचड, चिडीमार को या लडाई के चलाने के लिए धन या उपकरण या सिपाही व्याज पर, या दान मे, या किसी भी प्रलोभन या भय के वश होकर देना पापवध काही कारण होगा।
आजकल दान देना भी श्रावक जीवन में एक प्रथापूर्ति, रूढिपालन, वहम, मिथ्यात्व स्प रह गया है । जैनी भाई वेटा होने, वीमारी दूर होने, मुकदमा जीतने की अभिलाषा से, व्यापार वृद्धि के प्रलोभन आदि ऐहिक स्वार्थ साधनार्थ धर्म-स्थानो मे घी, केसर, छतर, स्वस्तिका, सोना-चांदी द्रव्य चढाते है । नवीन मदिर शहरो में बनवाते है, जहाँ काफी जैन मदिर मौजूद है । विम्व प्रतिष्ठा कराते, गजरथ निकलवाते, रथोत्सव करवाते है और वहुधा स्त्रियाँ मरण समय पर अपना जेवर मदिरो में दान कर जाती है । ये लोग समझते है कि इस प्रकार के दान से उन्होने पुण्यप्राप्ति की । यह तो केवल भ्रम है, आत्मप्रवचना है । सस्थाओ में बिना समझे, सस्था की सुव्यवस्था की जांच किये विना दान देना व्यर्थ ही होता है । सच्ची समाज-सेवा उस दान से होती है, जिसके फलस्वरूप दुखी, दरिद्री, सहधर्मी, सदाचारी बन्धुवर्ग को आवश्यकीय सहायता मिले। धार्मिक या लौकिक लाभदायक शिक्षा का प्रसार हो। प्राचीन जैन मूर्तियो, शिलालेखो, स्तूपो, अतिशयक्षेत्रो को सुव्यवस्था तथा सुप्रबध हो। जैन धर्म की । वास्तविक प्रभावना हो, अजन जनता पर जैन धर्म के सिद्धान्तो का प्रभाव पडे और जैन धर्म में उन्हें श्रद्धा उत्पन्न हो। ऐसे केन्द्रीय शिक्षणालय, गुरुकुल, उदासीनाश्रम स्थापित किये जावे, जहाँ रह कर दीक्षित ब्रह्मचारी बालक सदाचार
और प्रौढ ज्ञान को प्राप्ति करें। जहाँ के व्युत्पन्न उत्तीर्ण विद्यार्थी धनिक वर्ग के तुच्छ सेवक बन कर उदर-पालन, धनसग्रह, या कुछ सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेने को ही अपना जीवनोद्देश्य न समझे। सच्चे मुनि तो निरन्तर सदुपदेश देकर उत्कृष्ट दान करते रहते है । उपाध्याय और प्राचार्य भी सदा धर्मोपदेश और आत्मानुभव का मार्ग बतलाकर महान दान करते रहते है। अहंन्त भी तो दिव्यध्वनि से क्षणिक दान देते रहते है।
सक्षेपत मनुष्य जीवन गृहस्थ अवस्था से व्रती, श्रावक, क्षुल्लक, ऐलक, मुनि, साधु, उपाध्याय, अहंन्त अवस्था तक वरावर समाज-सेवा में रत रहते है। सिद्धप्राप्ति तक समाज-सेवा मनुष्य का भारी जन्मसिद्ध अधिकार और परम कर्तव्य है। इससे आत्मलाभ और परोपकार एक साथ दोनो सधते है। युद्ध, वैमनस्य, ईर्ष्या, द्वेष, लोम, मायाचारी, छीना-झपटी का समूल नाश होता है । ससार में शान्ति-सुख का प्रसार, विस्तार और सचालन होता है । "वसुधैव कुटुम्बकम" की कहावत चरितार्थ हो जाती है और ससार स्वर्ग बन जाता है।
सक्षेप में समाज-सेवक मनुष्य की पहचान यह है कि वह समाज से कम-से-कम ले और समाज को अधिक-सेअधिक दे । जैन साधु का लक्षण यह है कि वह ऐसा आहार भी नहीं ग्रहण करता है जो उसके निमित्त से बनाया गया हो,या जो दया भाव से दिया जाता हो। जैन-साधु भिक्षु नहीं है । उसको आहार की भी चाह नही है । वह कर्मनाग के लिए तपश्चरण करने के अर्थ और आत्मघात के पाप से बचने के लिए जो कोई भव्य जीव भक्तिवश, सत्कारपूर्वक, निर्दोप भोजन में से, जो उसने अपने कुटुम्ब के वास्ते बनाया है, मुनि को भक्तिसहित समर्पण करे तो खडेखडे अपने हाथ में लेकर दिन में एक बार ग्रहण कर लेता है। साधु ऐसे स्थान में भी नहीं ठहरता, जो उसके लिए तैयार या खाली कराया गया हो।
शीचार्थ जल और शरीर स्थिति के लिए शुद्ध अस्प भोजन के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु औषधि आदि भी जैन-साघु ग्रहण नहीं करेगा और वह सदा प्रत्येक क्षण प्रत्येक जीव को अभयदान, ज्ञानदान, उपदेश दान देता और अपने साक्षात निर्दोष दैनिक चरित्र से मोक्ष-मार्ग प्रदर्शन करता रहता है। यह समाज-सेवा का आदर्श है। प्रत्येक गृहस्थ थावक इस आदर्श को सदैव सामने रखता हुआ, अपनी पूरी शक्ति, साहस, उदारता से अपने जीवन निर्वाह के लिए समाज से कम-से-कम लेकर समाज को अधिक से अधिक देता रहे।
श्रद्धेय पडित नाथूराम प्रेमीजी ने अपने आदर्श जीवन से समाज-सेवा का आदर्श जैन श्रावक के लिए उपस्थित कर दिया है। लखनक ]