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प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ "अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, असग्रह शरीरश्रम, अस्वाव, सर्वत्रभयवर्जन । सर्वधमासमानत्व, स्वदेशी, स्पर्शभावना
ही एकादश सेवावी नम्रत्वे व्रतनिश्चये ॥ नम्रता के साथ और व्रत के निश्चय के साथ इन ग्यारह व्रतो का आजीवन पालन ही मनुष्य को उसके सब दुखो से मुक्त कर सकता है।
आज सारे ससार में हिंसा की ही विभीषिका छाई हुई है। जहां-तहां मानव दानव वन कर जीवन में जितना कुछ सरक्षणीय है, इष्ट है, पवित्र है, उपासनीय है, उस सब को उन्मत्त भाव से नष्ट करने में लगा है । क्षणिक सुखो की आराधना ही मानो उसका जीवन-ध्येय बन गया है । ऐश्वर्य और भोग की अतृप्त लालसा ने उसे निरकुश वना दिया है। जीवन के शाश्वत मूल्यो को वह भूल गया है। उसने नये मूल्यो की, जो सर्वथा मिथ्या है, सृष्टि की है और उनकी प्रतिष्ठा को बढाने में कोई कसर नही रक्खी । यही कारण है कि आज की दुनिया में अहिंसा की जगह हिंसा की प्रतिष्ठा वढ गई है, सत्य का स्थान मोहक असत्य ने ले लिया है, अपने स्वार्थ के लिए, अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए मनुष्य प्राज सत्य का सबसे पहले वध करता है। पिछले महायुद्ध का सारा इतिहास डके की चोट यही सिद्ध कर रहा है। हमारे अपने देश मे सन् '४२ के बाद जो कुछ हुया, उसमे शासको की ओर से अमत्य को ही सत्य सिद्ध करने की अनहद चेष्टा रही । सफेद को काला और काले को सफेद दिखाने की यह कसरत कितनी व्यर्थ थी, कितनी हास्यास्पद, सो तो आज सारी दुनिया जान गई है, फिर भी गासको ने इसी का सहारा लिया, क्योकि उनका सकुचित स्वार्थ उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य कर रहा था। आज भी देश मे और दुनिया मे इमी असत्य की प्रतिष्ठा वढाने के अनेक सगठित प्रयत्न हो रहे है । ऐसी दशा में गाधी जी की ही एक आवाज़ है, जो निरन्तर उच्च स्वर से सारे ससार को कह रही है कि हिंसा से हिंसा को और असत्य से असत्य को नही हराया जा सकता। यही कारण है कि उन्होने सदियो की गुलामी से समस्त भारतवर्ष को सत्य और अहिंसा का नया प्राणवान् सन्देश दिया है। और उनके इस सन्देश का ही यह प्रताप है कि सदियो से सोया हुया और अपने को भूला हुआ भारत पिछले पच्चीस वर्षों में सजग भाव से जाग उठा है और उसने अपने को-अपनी अत्मा को-पा लिया है। अव ससार की कोई शक्ति उसको स्वाधीनता के पथ से डिगा नही सकती।
जहाँ सत्य और अहिंसा है, वहाँ अस्तेय तो है ही। जो सत्य का उपासक है और अहिंसा का व्रती है, वह चोर कैसे हो सकता है ? चोरी को वह कैसे प्रश्रय दे सकता है ? और चोर कौन है ? वही, जो दूसरो की कमाई पर जीता है, जो खुद हाथ-पैर नही हिलाता और दूसरो से अपना सब काम करवा कर उनसे मनमाना फायदा उठाता है, जो गरीबो और असहायो का शोषण करके अपनी अमीरी पर नाज करता है, जो धनकुवेर होकर भी अपनी जरूरतो के लिए अपने सेवको का गुलाम है, जो झूठ-फरेव से और धोखाघडी से भोले-भाले निरीह लोगोको लूट कर अपना स्वार्थ सीधा करता है और राज व समाज में झूठी प्रतिष्ठा पा जाता है। गीता के शब्दो में ये सब पाप कमाने और पाप खाने वाले है, जिनकी असल मे समाज के वीच कोई प्रतिष्ठानही होनी चाहिए। प्रतिष्ठा की यह जो विकृति आज नजर आती है, उसका एक ही कारण है-कुशासन । शासन चाहे अपनो का हो, चाहे परायो का, जब वह सुशासन मिटकर कुशासन का रूप धारण कर लेता है तो लोक-जीवन पर उसका ऐसाही प्रवाछनीय प्रभाव पडता है। आज के हमारे चोर वाजार और काले बाजार इसके प्रत्यक्ष प्रमाण है। आज तो शासन का आधार ही गलत हो गया है। शासन का लक्ष्य प्राज प्रजा का सवर्द्धन, सगोपन, और सपोषण नहीं रहा। शासन तो आज लूट पर उतारू है। शोषण, उत्पीडन, दमन उसके हथियार है और वह निरकुश भाव से प्रजा पर सव का प्रयोग कर रहा है। शासन की इस उच्छृङ्खलता को रोकने का एक हीउपाय है, और वह है, समाज के बीच अस्तेय की अखड प्रतिष्ठा।