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________________ विश्व-मानव गांधी ७२५ स्वातन्त्र्य और स्वाधीनता के मनुष्य अपनी शक्तियो का सम्पूर्ण विकास कर ही नहीं सकता। जन्म के क्षण से लेकर मृत्यु के क्षण तक मनुष्य के लिए स्वतन्त्रता और स्वाधीनता की आवश्यकता स्वय-मिद्ध है। और फिर भी हम देखते है कि आज की दुनिया में मानव-मात्र के लिए यही दो चीजे है, जो अधिक-से-अविक दुर्लभ है। मनुष्य का स्वार्थ और उसकी लिप्मा कुछ इतनी बढ गई है कि उसने स्वस्थ मानव-जीवन की मूलभूत आवश्यकतानो को भुला दिया है और वह अपने निकट के स्वार्थ मे इतना डूब गया है कि दूर की चीज़, जो शाश्वत और सर्वकल्याणकारी है, उसे दीखती ही नहीं। अपने मकुचित स्वार्थ के वशीभूत होकर मनुष्य स्वय वन्वनो मे बंधता है और अपने प्रामपाम भी वन्वनो का मजबूत जाल फैला देता है । समार में आज सर्वत्र यही मूढ दृश्य दिखाई दे रहा है। निर्मल आर्प दृष्टि दुर्लभ हो गई है। विश्व-कल्याण की भावना मानो विला गई है। एक का हित दूसरे का अहित बन गया है, एक की हानि, दूसरे का लाभ । शोपण, उत्पीडन, दमन, और सर्वसहार के भीषण शस्त्रास्त्रो से सज्ज होकर मनष्य प्राज इतना बर्वर और उन्नत हो उठा है कि उपको इस मार्ग से हटाना कठिन हो रहा है। बार-बार पछाडे खाकर भी वह मंभलता नहीं, उसे होश नहीं आता। समार आज ऐसे ही कठिन परिस्थिति में मे गुजर रहा है। वह पथभ्रष्ट होकर सर्वनाश की ओर दौडा चला जा रहा है । किमी की हिम्मत नहीं होती कि इस उन्मत्त को हाथ पकड कर रोके, इसके होग की दवा करे और इमे सही रास्ता दिखाये--उस रास्ते इसे चला दे | मव आपाधापी में पड़े है। अपनी चिन्ता को छोड विश्व की चिन्ता कौन करे ? विश्व की चिन्ता तो वही कर सकता है, जिसे अपनी कोई चिन्ता नही, जिसने अपना सब कुछ जगन्नियन्ता को मौंप रक्खा है और जो नितान्त निम्पृह भाव से उमकी सृष्टि की सेवा में लीन हो गया है । हम भारतीयो का यह एक परम सौभाग्य है कि हमारे देश में, आज के दिन हमारा अपना एक महामानव अपने सर्वस्व का त्याग करके निरन्तर विश्वकल्याण की चिन्ता में रत रहता है और अपने सिरजनहार से सदा, सोते-जागते, उठते-बैठते, यह मनाता रहता है कि दुनिया में कोई दुःखी न हो, कोई रोगी न हो, किमी की कोई क्षति न हो, सव सुख, समृद्धि और सन्तोष का जीवन विताये, सव ऊर्ध्वगामी बने, मव कल्याण-कामी बनें । सर्वेऽत्र सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामया । सर्वेभद्राणिपश्यन्तु माकश्चिदु ख माप्नुयात् ॥ वह नहीं चाहता कि विश्व की सारी सम्पदा उसे प्राप्त हो, विश्व का साम्राज्य उसके अधीन हो। वह अपने लिए न स्वर्ग चाहता है, न मोक्ष चाहता है। उसकी तो अपनी एक ही कामना है-जो दीन है, दुखी है, दलित है, पीडित है, परतत्व और पराधीन है, उनके मव दुख दूर हो, उनकी पीडाएँ टले, उनका शोपण-दमन बन्द हो, उनके पारतन्त्र्य का नाश हो, उनकी पराधीनता मिटे । नत्वह कामये राज्य न स्वर्ग नाऽपुनर्भवम् । कामये दुखतप्तानां प्राणिनामाति नाशनम् । भयाकुल, परवश और सत्रस्त समार को निर्भय, स्वतन्त्र और सुखी वनाना ही गाधी जी के जीवन का एकमात्र ध्येय है। मानव-ससार की पीडा और व्यथा को जितना वे समझते और अनुभव करते है, उतना शायद ही कोई करता हो । यही कारण है कि उन्होंने एक निपुण चिकित्सक की भांति विश्व को उसके भयानक रोग की अमोघ औषधि दी है और उसकी अमोघता के प्रमाण भी प्रस्तुत किये है। जीवन के ममग्र व्यापार में अहिंसा का पालन ही वह अमोघ औपधि है, जिसके सेवन से विश्व-शरीर के समस्त रोगो का निवारण हो सकता है। इसी अहिंसा की एकात उपासना मे से गाधीजी को उन ग्यारह व्रतो की उपलब्धि हई है, जिनके विना जीवन में अहिंमा की शुद्धतम सिद्धि सम्भव नही
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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