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प्राकृत और सस्कृत पचसग्रह तथा उनका श्राधार
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सूत्रो को यहाँ ज्यो-का-त्यो उठाकर रख दिया गया है । केवल जहाँ कही कहने मात्र को 'ज' या 'त' मे से कोई एक शब्द को छोड़ दिया गया है । इस विषय मे यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जिन्हें इसमें लेशमात्र भी सदेह हो, वे मूल से मिलान करके देख सकते है ।
प्राकृत पचसग्रह के प्रथम जीवसमाम और तृतीय कर्मप्रकृतिस्तव नामक प्रकरणो का श्राधार क्या है, यह अभी तक स्पष्टत ज्ञात नही हो सका । सभव है कि ये दोनो प्रकरण प्राकृत पचसग्रह के कर्ता ने स्वतंत्र ही रचे हो और यह भी सभव हो सकता है कि इन दोनो प्रकरणो की बहुत सी गाथाएँ प्राचार्य - परपरा से चली आ रही हो और प्राकृतपचसग्रहकार ने उन्हे सुव्यवस्थित रूप से इस ग्रन्थ मे निवद्ध या सग्रह कर दिया हो, क्योकि 'पच सग्रह' इस नाम से उक्त बात की ध्वनि निकलती है । फिर भी इतना तो निर्विवाद कहा ही जा सकता है कि 'बघस्वामित्व' और 'बघविधान' ये दोनो खड षट्खडागम में आज भी उपलब्ध है और बहुत सभव है कि पचसग्रहकार ने इन दोनो के आधार पर इन दोनो प्रकरणो की स्वतंत्र पद्य रचना की हो। इन दोनो प्रकरणो का सीधा सबध किस-किस ग्रथ से रहा है, यह बात श्रद्यापि श्रन्वेषणीय ही है ।
( ४ ) प्राकृत पंचसंग्रह का कर्त्ता कौन ?
प्रस्तुत ग्रन्थ के श्राधार-सवधी इतनी छानवीन कर चुकने के बाद अब प्रश्न उठता है कि प्राकृत पचसग्रह का रचयिता या सग्रहकार कौन है ?
पर्याप्त अन्वेषण करने के बाद भी अभी तक उक्त ग्रन्थ के रचयिता के विषय में कुछ भी निर्णय नही किया जा सका, हालाकि दो-एक आचार्यों के अनुमान के लिए कुछ प्रमाण अवश्य मिले है, पर जब तक इस विषय के काफी स्पष्ट और पुष्ट प्रमाण नही मिल जाते तब तक उनके नाम का उल्लेख करना उचित नही ।
( ५ ) प्राकृत पंचसंग्रह का निर्माण-काल
यद्यपि जब तक ग्रन्थकार के नाम का निर्णय नही हो जाता है तब तक उसके रचना-काल का निर्णय करना भी कठिन कार्य ही है, तथापि एक बात तो सुनिश्चित ही है कि यह ग्रन्थ मूल 'शतक' प्रकरण के पीछे रचा गया है । मूल 'शतक' प्रकरण के रचयिता श्राचार्य 'शिवशर्म' है, जैसा कि इस ग्रन्थ की चूर्णि बनानेवाले अज्ञात नामधेय आचार्य ने अपनी चूर्णि का प्रारंभ करते हुए लिखा है
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'केण कय सतग पगरण ति ? शब्द- तर्क- न्यायप्रकरण-कर्मप्रकृतिसिद्धान्तविजाणएण श्रणेगवायसमालद्धविजएण शिवसम्मायरियणामधेज्जेण कय ति । कि परिमाण ? माहापरिमाणेण सयमेत्त ।'
आचार्य शिवशर्मं का समय यद्यपि श्रद्यावधि सुनिश्चित नही हो सका है, तथापि विद्वानो ने विक्रम की पाँचवी शताब्दी में होने का अनुमान किया है । इसलिए शिवगर्म श्राचार्य के पश्चात् और घवला दोका के कर्ता आचार्य वीरसेन के पूर्व किसी मध्यवर्ती काल मे प्राकृतपचसग्रह का निर्माण हुआ है, इतना अवश्य सुनिश्चित हो जाता है । धवला टीका की समाप्ति का काल शक स० ७३८ है ।
चौरासी, (मथुरा) ]