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वारह] ने जितना प्रकाशन-कार्य को आगे बढाया है, उतना कोई सस्या भी नही कर सकती थी। उन्हें अभिनदन-पथ दिया जाना उपयुक्त ही है।"
___ श्री शातिप्रिय द्विवेदी : "मैं आपके अभिनदन-कार्य का अभिनदन करता हूँ, क्योकि वह एक नाहित्यिक साधक को अर्घदान देने का अनुष्ठान है।" ___उपर्युक्त विद्वानो और साहित्यकारो के अतिरिक्त अन्य साहित्य-सेवियो ने, जिनमे श्रद्धेय वावूराव विष्णु पराडकर, रायकृष्णदास, डा० मोतीचद, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य पद्मनारायण, श्री कृष्णकिंकरसिंह प्रभृति के नाम उल्लेखयोग्य है, इस प्रस्ताव का हार्दिक समर्थन किया। जैन-विद्वानो मे आचार्य जुगलकिशोर मुस्तार, मुनि जिनविजयजी, महात्मा भगवानदीन, प० सुखलाल जी, डा. हीरालाल जैन, प० वेचरदान जी० दोशी, प्रो० दलसुम मालवणिया, डा० ए० एन० उपाध्ये, प० कैलाशचद्र जी, प० फूलचन्द्र जी आदि ने भी इस आयोजना का पूर्ण स्वागत किया।
हिन्दी के कई पत्रो ने इस बारे में अपने विचार प्रकट किये। काशी के दैनिक 'ससार' ने लिखा "हिन्दी पर हमारी मातृ-भाषा मौर राष्ट्र-भापा पर-नाथूराम जी का जो उपकारभारहै, उने हम कभी भी नहीं उतार केंगे। हमारा कर्तव्य है कि उनका अभिनदन करने की जो योजना की गई है, उसमे हम ययाक्ति हाय बटावे और गय के प्रकाशित हो जाने पर उसका प्रत्येक साक्षर घर मे प्रचार करे।"
शुभचिंतक (जवलपुर) “श्री नाथूराम जी प्रेमी हिन्दी-साहित्य के श्रेष्ठ लेखक और प्रकाशक है। उनका हिन्दी-सेवा स्तुत्य है । वगला का श्रेष्ठ साहित्य हिन्दी-भापा-भापियो को उनके पयत्नो से ही उपलब्ध हो सका है। इसके अतिरिक्त उनकी हिन्दी-सेवा भी अपना एक विशेष स्थान रखती है।"
जापति (कलकत्ता). "जिस मां-भारती के लाल ने साहित्यिक कोप को भरने के लिए मौलिक गय दिये तया उमके भण्डार को अन्य उन्नत भापामो के अनुवाद-पयो से पूर्ण करने का प्रयत्न किया, उन श्री नापूराम प्रेमी के अभिनदन प्रस्ताव का कौन मुक्तकण्ठ से समर्थन न करेगा? आज अगर हिन्दी मे उसके लेखको का सम्मान बढा है तो उनका श्रेय श्री प्रेमी जी द्वारा सचालित "हिन्दी-नय-रत्नाकर-कार्यालय', वम्बई को है।"
एक ओर यह आयोजन चल रहा था, दूसरी पोर प्रेमी जी ने अपने २७ दिसम्बर १९४२ के पत्र में चतुर्वेदी जी को लिखा
"काशी के छात्रों ने तो खैर लडकपन किया, पर यह आप लोगो ने क्या किया? मै तो लज्जा के मारे मरा जा रहा हूँ। भला में इस सम्मान के योग्य हूँ? मैने किया ही क्या है ? अपना व्यवसाय ही तो चलाया है। कोई परोपकार तो किया नहीं। आप लोगो की तो मुझ पर कृपा है, पर दूसरे क्या कहेंगे? मेरो हाथ जोड कर प्रार्थना है कि मुझे इस सकट से बचाइए। यह समय भी उपयुक्त नहीं है।"
अनतर ४ फरवरी १९४४ के पत्र में यशपाल जैन को लिखा
"एक जरूरी प्रार्थना यह है कि प्राप चौवे जी को समझा कर मुझे इस अभिनदन-नय की असह्य वेदना से मुक्त करादें। उसके विचार से ही मै अत्यन्त उद्विग्न हो उठता हूँ। मै उसके योग्य पदापि नही हूँ। मुझे वह समस्त हिन्दी-ससार का अपमान मालूम होता है । मै हाथ जोडता हूँ और गिडगिडाता हूँ. मुझे इस कष्ट से वचाइए।"
प्रेमी जो अत्यन्त मकोचशील है और नमा-सोसायटी तथा मान-सम्मान के आयोजनो से सदा दूर ही रहते है। अत इस आयोजन से उन्होने न केवल अपनी असहमति ही प्रकट की, अपितु उससे मुक्ति मी चाही, लेकिन उस समय तक योजना बहुत आगे वढ चुकी थो और हिन्दी तथा अन्य भाषामो के विद्वानो का आग्रह था कि उसे अवश्य पूरा किया जाय।।
इसके बाद चतुर्वेदी जी, भाई राजकुमार जी साहित्याचार्य तथा यशपाल जैन ने इस सबंध में कई स्थानो की यात्रा की और विद्वानो के परामर्श से निम्नलिखित कार्य-समिति का सगठन किया गया