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मथुरा का जैन स्तूप और मूर्तियां
२८१ मत मे इन मंदिरो का समय ईस्वी पूर्व दूसरी शताब्दी का है। इन मंदिरो मे ई० पू० दूसरी शताब्दी मे लेकर ईमा की वारहवी शताब्दी तक के शिलालेख और शिल्प के उदाहरण मिले है, जिनसे यह ज्ञात होता है कि लगभग १४०० वर्ष तक जैन धर्म के अनुयायी यहाँ निरतर तरह-तरह के सुन्दर शिल्प की सृष्टि करते रहे । ककाली टीले मे अव तक प्राय ममिला और डेढ हजार पत्थर की मूर्तियां मिली हैं। इनमें वेदिकाएँ, तोरण, ग्रायागपट्ट, तीर्थकर मूर्तियाँ, सर्वतोभद्रका प्रतिमाएँ आदि प्रमुख हैं, जो अपनी उत्कृष्ट कारीगरी के कारण आज भी भारतीय कला के गौरव समझे जाते है ।
बौद्ध स्तूपों की तरह मथुरा का जैन स्नूप भी चारो ओर एक प्रकार की वेष्टनि या चहारदीवारी मे मज्जित था, जिसके चार ग्रस्नम्भ, सूची, ग्रालवन और उष्णीप— थे । इन वेदिकाश्री के स्तभो पर अनेको
चित्र २ -- उत्तर गुप्तकालीन तीर्थंकर-मूर्तियां
सुभग गात्र वालो वनिताएँ अकित है, जो माथुरी कला को अनुपम देन है । इनकी सुन्दर पोशाको तथा भाति भाति के रत्नजटित त्राभूषणों को देखकर दाँतो तले अगुली दवानी पड़ती है । अशोक, वकुल, ग्राम्र और चपक के उद्यानों मे पुष्पचयन, गालभजिका श्रादि क्रीडाग्री मे प्रसक्त अथवा कदुक, खड्ग आदि के खेलो में मलग्न अथवा स्नान और प्रभावन में लगी हुई कुलागनाथो को देखकर कौन विना मुग्ध हुए रह सकता है ? इन पर बने हुए भक्ति भाव से पूजा के लिए फूल-मालाओ की भेट लाने वाले उपानको को शोभा निराली है । सुपर्ण और किन्नर यादि श्रर्द्ध देवो की पूजा के दृश्यों से इन वेदिकाओं की सुन्दरता तथा महिमा और भी भावगम्य हो गई है । ऐमी ही वेदिकानों से सुमज्जित एक स्नूप का दृष्य हमें मयुग के अजायबघर में प्रदर्शित एक प्रयागपट्ट (चित्र १ ) पर मिलता है । बीच में एक गोलाकार स्तूप है, जिस पर पहुँचने के लिए मोढियाँ बनी है । स्तूप के चारो ओर वेदिकाएँ ( Railings) है । चारो दिशाओ में तोरणो मे मुमज्जित वहिर्द्वार ( Gateways ) बने हैं । इन वहिर्द्वारो के भो को सभालने के लिए तुडियाएँ (Brackets) दी गई है, जिन पर चापभुग्नगात्रो वाली यक्षियाँ उत्कीर्ण है ।
श्रायागपट्ट (Tablet of homage) पत्थर के उम चौकोर टुकडो को कहते है, जो अनेको प्रकार के मागलिक चिह्नों ने श्रकित कर के किमी तीर्थकर को चढाया गया हो। ककाली टीले से इम प्रकार के कई ग्रायागपट्ट
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