________________
कुछ जैन अनुश्रुतियां और पुरातत्त्व
श्री मोतीचन्द्र एम० ए०, पी-एच० डी० ( लदन)
भारतीय इतिहास के विद्यार्थियो को ऐतिहासिक अनुश्रुतियो का महत्त्व भली भाँति विदित है । ब्राह्मण, वौद्ध और जैन अनुश्रुतियो से इतिहास के ऐसे धुंधले पहलुओ पर भी प्रकाश पडता है, जिनका पता भी पुरातत्त्व की खुदाइयो से अभी तक नहीं चला है । अशोक के पूर्व और बाद भी गुप्त काल तक पौराणिक अनुश्रुतियाँ हमें भिन्नभिन्न कुलो के राजाओ के नाम तथा उनके सम्बन्ध की और भी जानकारी की वातें बताती है । ई० की चौथी शताब्दी के वाद से लेकर हमे पुरातत्त्व की तरह-तरह की सामग्रियाँ इतिहास निर्माण के लिए मिलती है फिर भी रूखे इतिहा की कठोरता में सजीवता लाने के लिए हमे पुराणो तथा ऐतिहासिक काव्यो में वर्णित प्रासंगिक गाथाओ का सहारा भी लेना पडता है । पुरातत्त्व ही एक ऐसी विद्या है जिसके सहारे हम भारतवर्ष के रीति-रिवाज, रहन-सहन, व्यापार तथा भारतीय जीवन के और पहलुओ का भी क्रमबद्ध इतिहास निर्माण कर सकते हैं, पर दुख के साथ कहना पडता है कि सिन्ध और पजाब की प्रागैतिहासिक खुदाई को छोडकर, वैज्ञानिक अन्वेषण की ओर भारतीय पुरातत्त्व ने अभी नाम मात्र के लिए ही कदम उठाया है । ऐसी अवस्था में भी लाचार होकर हमें साहित्य की सहायता से ही समाज के इतिहास का ढाँचा खडा करना पडता है, यह ढाँचा चाहे सही हो या गलत, क्योकि अभी तक हम सदिग्ध रूप से अपने साहित्य के श्रमररत्नो का भी काल ठीक-ठीक निर्णय नही कर सके है ।
1
ऐतिहासिक अनुश्रुतियो की खोज में पुराणो, काव्यो और नाटको की काफी छान-बीन की जा चुकी है । वौद्धसाहित्य के त्रिपिटक, अट्टकथाओ, महावस और दीघवस तथा संस्कृत वौद्ध साहित्य की और भी बहुत सी कथाओ से भारतीय इतिहास र पुरातत्त्व पर काफी प्रकाश डाला जा चुका है । क्या ही अच्छा होता कि हम जैन साहित्य के बारे में भी यही बात कह सकते । कुछ विदेशी विद्वानो ने जिनमें वेबर, याकोवी, लॉयमान तथा शुवरिंग मुख्य है जैन साहित्य का सर्वांगीण अध्ययन करने का प्रयत्न किया है, लेकिन जो कुछ भी काम अवतक हुआ है वह क्षेत्र की व्यापकता देखते हुए नही-सा है । विदेशी और भारतीय विद्वानो की कृपा से हम जैन-दर्शन और धर्म की रूप-रेखा से अवगत हो गये है, पर जैन-साहित्य में जो भारत के सास्कृतिक इतिहास का मसाला भरा पडा है उसकी ओर बिरलो ही का ध्यान गया है। अगर हम ध्यान से देखे तो इस उदासीनता का कारण अच्छी तरह सम्पादित जैन-प्रन्थो का अभाव है । न तो जैन आगमो में टिप्पणियाँ ही देख पडती है, न प्रस्तावनाएँ । अनुक्रमणिकाओं का तो सर्वथा अभाव रहता है । सम्प्रदाय विशेष के ग्रन्थ होने से सब को इनके मिलने मे भी वडी कठिनाई होती है, यहाँ तक कि बडे-बडे विश्वविद्यालयो के पुस्तकालयो में भी जैन-अग या छेद-सूत्र वडी कठिनता से ही प्राप्त होते है । इन कठिनाइयो के साथ-साथ भाषा का भी प्रश्न है । महाराष्ट्री प्राकृत जो जैन ग्रन्थो की भाषा है अक्सर लोगो के समझ में नही आती और बहुत से स्थल ऐसे श्राते है जो विशेष अध्ययन के विना समझ ही में नही आते। इन सब कठिनाइयो को ध्यान में रखते हुए विद्वानो ने जैन-शास्त्रो को जबतक उनके उपादेय सस्करण न निकल चुकें अलग ही छोड दिया है । लेकिन वास्तव में ऐसा करना नही चाहिए। अशुद्ध टीका श्रो, चूर्णियो और छेद-सूत्रों में भी हमे ऐसे मार्के की सामग्रियाँ मिलती है जो और कही उपलब्ध नही है । इन श्रनुश्रुतियो का महत्त्व, जैसा हम आगे चलकर देखेंगे, इसलिए श्रोर भी वढ जाता है कि वे पुरातत्त्व की बहुत सी खोजो पर प्रकाश डालकर उनकी ऐतिहासिक नीव को और भी मजबूत बनाती है ।
यहाँ यह भी प्रश्न उठता है कि ऐतिहासिक अनुश्रुतियो और पुरातत्त्व की खोजो का पारस्परिक सम्वन्ध क्या है ? पुरातत्त्व वैज्ञानिक श्राश्रयो पर अवलम्बित है और पुरातत्त्व का विद्यार्थी तबतक किसी सिद्धान्त पर नही पहुँचता जवतक वह खुदाई के प्रत्येक स्तर से निकली हुई वस्तुयो का वैज्ञानिक रीति से अध्ययन न कर ले । अपने सिद्धान्तो