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प्रेमी-प्रभिनंदन-प्रेय
को और अधिक वैज्ञानिक बनाने के लिए वह एक जगह से मिली सामग्रियो को ठीक उसी स्तर पर दूसरी जगहों से मिली सामप्रियो से तुलना करके तव किसी विशेष निष्कर्ष पर पहुँचता है। इसके विपरीत अनुश्रुतियां सैकडो पुश्तो से जवानी चली आती है और पेश्तर इनके कि वे लिख ली जावें, मौखिक आदान-प्रदान के कारण उनमे बहुत से फेरफार और व्यर्थ की बातो का समावेश हो जाता है, जिनसे उनकी सचाई में काफी सन्देह की जगह रह जाती है। इन सच वातो से यह स्वाभाविक ही हैं कि पुरातत्त्व की वैज्ञानिक पद्धति मौखिक अनुश्रुतियो को सन्देह की दृष्टि से देखे और उनकी सत्यता को तभी माने जब खुदाइयो से या अभिलेखो से भी उनकी पुष्टि होती हो । विद्वानो ने पुरातत्त्व की अवहेलना और 'साहित्यिक प्रातत्त्व' पर विश्वास की काफ़ी जोरदार समालोचना की है। लेकिन इस विवाद से यह न नमभ लेना चाहिए कि अनुश्रुतियो में कुछ तत्त्व ही नहीं हैं । ठोस ऐतिहासिक सामग्रियों के अभाव में केवल अनुश्रुतियाँ ही कुछ जटिल प्रश्नो को सुलझाने में नमर्थ हो सकती है। लेकिन अनुश्रुतियो का मूल्य समझते हुए भी यह बात आवश्यक हैं कि उनका प्रयोग विज्ञान की तराजू पर तौल कर हो । अगर पुरातत्त्व से अनुश्रुतियो का सम्वन्ध है तो दोनो के नामजस्य ने ही एक विशेष निर्णय पर पहुँचना चाहिए। अनुश्रुतियो के अध्ययन के लिए यह भी आवश्यक है कि एक ही तरह की भिन्न-भिन्न अनुश्रुतियों को पढकर उनकी जड तक पहुँचा जाये। ऐसा करने से स्वय ही विदित होने लगेगा कि कौन सी बातें पुरानी और असल है और कौन सी वाद में जोड दी गई हैं । जैन - शास्त्र की घोडी नी अनुश्रुतियो का प्रव्ययन करते हुए हमने इस वात का पूर्ण ध्यान रक्खा है कि पुरातत्त्व से उन पर क्या प्रकाण पडता है । इस छान-बीन से हमें पता चला कि अनुश्रुतियों में किस तरह एक सत्य की रेखा निहित रहती है और किम तरह धीरे-धीरे कपोलकल्पनाएँ उसके चारो ओर इकट्ठी होकर सत्य को ढक देने की कोशिश करती रहती हैं। पुरातत्त्व के सहारे ते यह सत्य पुन निखर उठना है। नीचे के पृष्ठो में पुरातत्त्व के प्रकाश में कुछ जैन अनुश्रुतियो की जांचपडताल की गई है और यह दिखलाने का प्रयत्न किया गया है कि किस प्रकार अनुश्रुतियां और पुरातत्त्व एक दूसरे के सहारे से इतिहास - निर्माण में हाथ बँटाते हैं ।
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जिन्हें उत्तर-भारत को बडी नदियो से परिचय है उन्हें यह भी मालूम होगा कि अनवरत वर्षा से इन नदियो में कैनै प्रलयकारी पूर आ सकते है । गरमी में जो नदियां सूखकर केवल नाला वन जाती है वे ही नदियां घनघोर वरसात के बाद बड़ी गरज-तरज के साथ उफनती हुई वस्तियो और खेतो को बहाने के लिए तैयार दिखलाई पडती है । हमारे होश में ही ऐसी बहुत सी वाढे ना चुकी है जिनने घन-जन का काफी नुकसान हुआ था । प्राचीन भारत में भी बहुत सी ऐसी बातें आया करती थी, जिनमे से बहुत बडो को याद अनुश्रुतियो में बच गई है। प्राय धनुश्रुतियो में इन वाढ़ों का कारण ऋषि-मुनियो का श्राप या राजा का अत्याचार माना जाता है । इस प्रकार की एक वाढ का वर्णन, जिसने पाटलिपुत्र को तहस नहस कर दिया 'तित्त्योगाली पइण्णय' में दिया हुआ है । इस अनुश्रुति का सम्बन्ध पाटलिपुत्र की खुदाई से समझाने के लिए मुनि कल्याणविजय जी द्वारा तित्योगाली के कुछ अवतरणो का अनुवाद नीचे दिया जाता है -
कल्की का जव जन्म होगा तव मथुरा में राम और कृष्ण के मन्दिर गिरेंगे और विष्णु के उत्थान के दिन (कार्तिक सुदी ११) वहाँ जन-महारक घटना होगी।
इस जगत्-प्रसिद्ध पाटलिपुत्र नगर में ही 'चतुर्मुख' नाम का राजा होगा । वह इतना अभिमानी होगा कि दूसरे राजाओ को तृण समान गिनेगा । नगरचर्या में निकला हुआ वह नन्दो के पाँच स्तूपो को देखेगा और उनके सम्बन्ध
'मुनि कल्याणविजय, वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना, पृ० ३७-४०, मूल, ४१-४५ जालोर
सं० १६८७ ।