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प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ
'वावा वाक्य प्रमाण' को ही महत्व देते थे। श्री मुख्तार साहब ने सोमसेन त्रिवर्णाचार, धर्मपरीक्षा (श्वेताम्बर), अकलक प्रतिष्ठा-पाठ, और पूज्यपाद-उपासकाचार के विरोध मे युक्त्यागम सगत वीसो लेख लिखे, (जो 'अथ-परीक्षा' तीसरा भाग के नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित हुए) जिनसे समाज की आंखें खुल गई । इससे भी पूर्व उन्होने 'प्रथपरीक्षा के दो भाग लिखे थे, मोर 'जैनाचार्यों का शासन भेद' आदि पर लेख लिखे थे तथा करीब बारह वर्ष पूर्व 'सूर्य प्रकाश' अथ के खडन मे सूर्यप्रकाश परीक्षा' लिखी थी ।आपके उन लेखो और पुस्तकोने जैन समाज का वडा उपकार किया और समाज की अन्धश्रद्धा मिटाकर उसे सत्पथ दिखाया।
___ इसमे कोई सन्देह नहीं कि जिस सोमसेन 'त्रिवर्णाचार' की जिनवाणी की भांति पूजा हो रही थी, वह श्री मुख्तार साहब के लेखो और समीक्षा पुस्तको (ग्रथपरीक्षा भाग ३) से घृणास्पद माना जाने लगा । यह हाल उन सभी ग्रथो का हुआ, जिनके विरोध में मुख्तार साहब ने कुछ भी लिखा है।
अभी-अभी कुछ मुनियो एव भट्टारकीय परम्परा वाले जैन साधुओ द्वारापुन रन तथा उनसे मिलते-जुलते जालो ग्रयो का प्रचार प्रारभ हुआ था। स्व० मुनि सुधर्मसागर जी का इसमें काफी हाथ रहा है । उन्होने 'सूर्यप्रकाश' और 'चर्चासागर' का प्रचार किया, 'दान-विचार' और 'सुधर्मश्रावकाचार' नामक प्रयो की रचना की, उन्हें छपाया और प्रचारित किया, किन्तु जब उनका डट कर विरोध हुआ, समीक्षाएँ लिखी गई तो समाज के नेत्र खुले और उन जाली ग्रथो के प्रति घोर धृणा हो गई।
क्षुल्लक ज्ञानसागर जी (स्व० मुनि सुधर्मसागर जी) ने 'सूर्यप्रकाश' जैसे मिथ्यात्वपोषक अथ को आचार्य नेमिचन्द्रकृत बताने का प्रतिसाहस किया। उसका अनुवाद किया और छपवा कर उसे प्रचारित किया। श्री मुख्तार साहब ने उस के विरोध में कई लेख लिख कर उसे विल्कुल जाली, मिथ्यात्व पूर्ण और जैनत्व का नाशक सिद्ध कर दिया। चर्चासागर, दानविचार, और सुधर्मश्रावकाचार आदि ग्रन्यो की समीक्षाएँ हमने लिखी थी, जिन्हें लेकर कई वर्ष तक जैन-पयो में चर्चा चलती रही।
हमारी पुस्तक 'चर्चासागर-समीक्षा' की भूमिका में प० नाथूराम जी प्रेमी ने लिखा था, "हमारा विश्वास है कि स्वर्गीय प० वनारसीदास जी और प० टोडरमल जी आदि ने जो सद्विवेक ज्ञान की ज्योति प्रकट की थी, वह सर्वथा वुझ नही गई ई-हजारो-लाखो धर्मप्रेमियो के हृदय में वह आज भी प्रकाशमान है-और इसलिए हमे यह आशा करनी चाहिए कि मलिनीकृत और निर्मल जिन-शासन के भेद को समझने में उन्हे अधिक कठिनाई नही पडेगी।"
और भी बहुत से मिथ्यात्वपोषक अथ रचे गये, जिनका इस शताब्दी में खूब विरोध हुआ। दिल्ली]