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भारतीय नारी की वौद्धिक देन
"अय य इच्छद्दहिता में पण्डिता जायेत सर्वमायुरियादिति ।" (वृहद्धारण्यक उपनिषद १, ४, १७) (२) "कुछ स्त्रियां पुरुषो की अपेक्षा कही अधिक सच्चरित्र और विद्वता में श्रेष्ठ होती है" " इत्यपि हि एकची या लेय्यो पोसा, जनाधिप मेघावती सीलावती' (३) 'ललित विस्तार' में कुमार सिद्धार्थ गाया लिखने वाली और कवियित्री कन्या की भावी वव् के रूप में कामना करते हैं.
" सा गाय - लेख - लिखिते गुण श्रर्ययुक्ता या कन्य ईश भवेन्मम ता वरे था ।"
करता है
(ललित विस्तार अ० १२ पृ० १५८ )
(४) पुरुषो की भाति ही स्त्रियाँ भी कवित्रियाँ हो सकती हैं । काव्य प्रतिभा नर-नारी के भेद मे सर्वथा पृथक नैसर्गिक वस्तु हैं, जैसा कि राजपुत्रियो, राज कर्मचारिणियो, मन्त्रि- दुहिताओ और वेश्याओं तक को प्राय शास्त्र में प्रवीण वुद्धिमती और संज्ञ देखते-सुनते है । ( काव्य मीमासा पृ० ५३) । "पुरुषवद्योषित श्रूयते दृश्यन्ते च रा
प्रभवेयुः । सस्कारो ह्यात्मनि समवैति न स्त्रैण पौरुष वा विभागमपेक्षते । सत्य- दुहितरो गणिका कौतुकि- भार्याश्च शास्त्र प्रहत बुद्धय कवयश्च ।"
शिक्षा एव स्ि
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वेदाध्ययन, दर्शन, ज्ये. प्रो के पद को सुशोभित कर जिनके मानसिक स्तर की गहराई इस भावना से अधिक क्या होगी
में कैसा सुन्दर सरल विभाजन था ! प्रथम वे ब्रह्मवादिनी कन्याएं स्वेच्छा से यो की शिक्षा के हेतु श्राजीवन ब्रह्मचारिणी रह कर श्राचार्या और उपाध्याया "गार्गी, ब्रह्मवादिनी, आत्रेयी, मैत्रेयी श्रादि के नाम इसमें विशेष उल्लेखनीय है,
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"येनाहं नामृतास्या कि तेन, (प्रति प्रभुतेनापि वितेन) कुर्यामिति ।" अर्थात् जिससे अमृतत्व को प्राप्त न कर सकूँ, ऐसे राशि राशि धन-वैभव का क्या करूँ ?
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दूमरी बहुसख्यक 'सद्योद्वाहा' साधारण समाज की उन्नति की दृष्टि से कम-से-कम सोलह-सत्रह वर्ष की अवस्था तक पठन-पाठन व ललित कलाओ द्वारा उनकी अभिरुचि एव सृजनात्मक शक्तियो को परिष्कृत करने का भरपूर प्रयत्न किया जाता था । कुलीन घरो की स्त्रियाँ, कन्याएँ राज-दरवारी में प्राय नृत्य, सगीत - अभिनय आदि का प्रदर्शन किया करती थी । घरो को आनन्द का केन्द्र बनाने के हेतु वे विविध कला और शिल्प से पूर्ण परिचित तथा विनोद-कौतुक में पटु होती थीं। युद्ध, राजनीति, कृषि, यन्त्र एव अस्त्र-शस्त्र आदि के निर्माण तक में समान रूप से भाग लेने के कारण आर्थिक वन्वनो से मुक्त होती थी और इमी से सम्मान की पात्र समझी जाती थी । अपने-अपने निजी विषय की भली भाति ज्ञाता होने और जीवन के विस्तृत क्षेत्र मे कार्य करने के कारण ही उनकी लेखनी प्रत्येक विषय में प्रसूता थी । इसका एक प्रत्यक्ष प्रमाण हाल ही में प्रकाशित हुए 'कौमुदी महोत्सव' नामक नाटक से मिला है, जिसकी लेखिका श्री किशोरिका विजैनिका गुप्तकालीन एक राजकर्मचारिणी थी । यह नाटक विशेषतया राजनैतिक दृष्टिकोण से ही लिखा और उस समय खेला गया था ।
फिर मानव-सस्कृति को ऊंचे घरातल पर आसीन करने के लिये सर्वगुण सम्पन्न और विवेकशील कन्या स्वयवर द्वारा मनोनुकूल पति वरण करने में स्वतंत्र थी ।
"ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं वन्दिते पतिम
रूढिवाद अथवा जातिभेद की कोई अडचन नही थी, यहाँ तक कि एक स्थान पर पिता अपनी कन्या से प्रश्न
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'भगवान बुद्ध "
"एषा चतुर्णा वर्णाना पुत्रि कोऽपि - मतस्तव ।” (कथा-सरित-सागर ५३, १०४ ) अर्थात् - "यह चारो वर्ण तुम्हारे सामने है । इनमें से किसके लिये तुम्हारी इच्छा है ?"