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प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ का पूरा पता चलता है। वैसे तो प्रेमीजी ने जोशीले व्याख्यान नही दिये और जोशीले लेख भी नहीं लिसे, परन्तु उन्होने मूक भाव से क्रान्ति की प्रेरणा की है। उसका दूसरा उदाहरण वाबू सूरजभानु वकील द्वारा सम्पादित-प्रकागित 'सत्योदय' नामक मासिक है। सूरजभानु जी भी प्रेमीजी के असाधारण मिग है। कोई भी विचारक प्रेमीजी के ससर्ग मे आवे और उनसे प्रशान्त भाव से शास्त्रीय व सामाजिक रूढियो की चर्चा करे तो उनके क्रान्तिमय विचारो का पता उसे जरूर लगेगा। प्रेमीजी दृढ सकल्प से रूढियो का भजन करते रहे है। प्रेमीजी के प्रयत्न से ही शास्त्र छपवाने के विरोधी दिगम्बर-समाज में भी जैन-साहित्य का अच्छा मुद्रण-प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। 'माणिकचन्द्र-जैनग्रन्थमाला' मे अनेक अच्छे-अच्छे गन्य प्रेमीजी की देखभाल में सुसम्पादित होकर प्रकाशित हुए। अव तो यह कार्य इतना अग्रसर हुआ है कि जो ग्रन्थ अाज तक मूडबिद्री मे केवल पूजे ही जाते थे और यात्रियो के केवल दर्शन विषय बने हुए थे, वे धवला इत्यादि ग्रन्थ भी भाषान्तर के साथ छप कर प्रकाश में आने लगे है। इतना ही नही, परन्तु कई पडित नये युग के रग मे रँगकर दिगम्बर श्वेताम्बर के ऐक्य की खोज मे लग रहे है और यहां तक विचार किया जाने लगा है कि दोनो सम्प्रदाय मे कोई विरोध नहीं है। मेरी समझ मे श्री प्रेमीजी और उनके मिनो ने जो कान्तिके वीज बोये थे, वे उगे और उन्होने वृक्षो का रूप धारण कर लिया है । अभी फल कच्चे है, परन्तु जव पक जायँगे तब मारे जैनसमाज को अपूर्व प्रमोद होगा। प्रेमीजी ने जैन-साहित्य की तो सेवा की ही, परन्तु उन्होने विशाल और व्यापक दृष्टि रविकर सारे हिन्दी साहित्य की मेवा के लिए तत्पर होकर अपना 'जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय' 'हिन्दी-ग्रन्थ-रलाकरकार्यालय' के रूप में परिणत कर दिया और उसके द्वारा हिन्दी भाषा मे शुचि और स्वस्थ माहित्य प्रकागित करना • शुरु कर दिया। कहानी, इतिहास, वाचनमाला, विज्ञान, धर्म, समाज-व्यवस्था, अर्थशास्त्र, राजकारण आदि अनेक विषयो पर सुन्दर साहित्य उन्होने प्रकाशित किया और आज तक कर रहे है। यद्यपि व्यवमाय की दृष्टि से उन्होने सैकडो हिन्दी के ग्रन्थ प्रकाशित किये है तो भी ग्रन्थो को देखने से व्यवसाय की अपेक्षा उनकी साहित्य-सेवा को ही दृष्टि झलकती है । व्यवसायी लोग तो जनता की अधोभूमिका का लाभ लेकर शृगारमय वीभत्स साहित्य भी प्रकाशित कर गरीबो का धन हर ले जाते है, परन्तु प्रेमीजी के गन्थ-रत्नाकर मे ऐमी कोई भी पुस्तक नहीं मिल सकती। इस प्रकार श्री प्रेमीजी हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र मे हीरा है तो हमारे जैन-साहित्य-क्षेत्र में वे उज्ज्वल मणि के समान है। अपने इकलौते पुत्र श्री हमचन्द्र के अवसान के कारण प्रेमीजी को भारी प्राघात हुआ है और इसी कारण उनकी देह अव अधिक जर्जरित हो गई है । अत अस्वास्थ्य के कारण अब वे अनुत्साहित से दीग्व पडते है, फिर भी महात्मा बनारमी दासजी की तरह वे ठीक अन्तर्मुख है। इसी कारण अपनी साहित्य-सेवा की प्रवृत्ति से वे तनिक भी विचलित नहीं हुए है। भले ही उनका वेग मन्द हुआ हो, परन्तु प्रवृत्ति चलती ही रहती है। अभी उनकी 'जैन-साहित्य का इतिहास' तथा 'अर्धकथानक पुस्तके प्रकाशित हुई है। वे उनकी अन्तर्मुखता की गवाही है ।।
अन्त में प्रेमीजी की एक अनुकरणीय वात कहकर इस लेख को समाप्त करूँगा। प्रेमीजी ने अपना सारा बोझ अपने ही कन्धे पर ढोते हुए समाज-सेवा, कान्तिप्रचार, रूढि-भजन, सुचार-प्रवृत्ति और साहित्य-सेवा आदि प्रशसनीय प्रवृत्तियां आज तक की है। इसी प्रकार हम लोग भी अपना बोझ समाज व राष्ट्र पर न डालकर स्वय उसे संभालते हुए यथासाध्य कार्य में लगें तो अवश्य ही अच्छा कार्य कर सकेगे। प्रेमीजी वाहर से सीधे-सादे और अन्तरग से गम्भीर चिन्तक है । आज तक उन्होने जो काम किया है, स्थिरभाव से, स्थितप्रज्ञ की-सी वृत्ति से। क्रान्ति का उतावलापन या रूढिप्रियता का शोर-गुल उनमें नहीं है । 'काल कालस्य कारणम्' समझ कर जो वना, वह सचाई और ईमानदारी के साथ कर दिया, यही उनका स्वभाव है। अहमदाबाद ]
'खेद है कि अव श्री सूरजभानु जी का स्वर्गवास हो गया है। 'अर्घकथानक' प्रात्मचरित के लेखक, जिन्हें अपनी नौ सन्तानों का वियोग अपनी आँखो देखना पड़ा था।