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कुछ जैन अनुश्रुतिया और पुरातत्त्व
२३३ की कल्पना से सम्बन्ध रखता है। फिर भी जैन-साहित्य से यह पता लगता है कि वास्तव में कोई ऐसा अत्याचारी राजा था, जो अपनी करनी से कल्की बन गया। मुनि कल्यानविजय जी ने (वही, ३७-३८) चतुर्मुख कल्की के वारे में तमाम उद्धरण एकत्रित कर दिये है, जो यहां उद्धृत किये जाते है।
(१) तित्थोगाली-शक से १३२३ (वीरनिर्वाण १९२८) व्यतीत होगे तब कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) मे दुष्ट वुद्धि कल्की का जन्म होगा।
(२) काल सप्ततिका प्रकरणवीरनिर्वाण से १९१२ वर्ष ५ मास बीतने पर पाटलिपुत्र नगर में चडाल के कुल मे चैत्र की अष्टमी के दिन श्रमणो का विरोधी जन्मेगा, जिसके तीन नाम होगे१ कल्की , २ रुद्र और ३ चतुर्मुख।
(२) द्वीपमालाकल्प-'वीरनिर्वाण से १६१४ वर्ष व्यतीत होगे तव पाटलिपुत्र में म्लेच्छ कुल मे यश की स्त्री यशोदा की कुक्षि से चैत्र शु० ८ की रात मे कल्की का जन्म होगा।'
(४) दीपमालाकल्प (उपाध्याय क्षमाश्रमण)। 'मुझसे (वीरनिर्वाण से १७५ वर्ष बीतने पर) विक्रमादित्य नाम का राजा होगा। उसके बाद १२४ वर्ष के भीतर (नि० स० ५६६ में) पाटलिपुत्र नाम नगर में xxx चतुर्मुख (कल्की).का जन्म होगा।'
(५) तिलोयसार (दिगम्बराचार्य नेमिचन्द्र)।
वीरनिर्वाण से ६०५ वर्ष और ५ मास बीतने पर 'शक राजा' होगा और उसके वाद ३९४ वर्ष और सात मास में अर्थात् निर्वाण सवत् १००० में कल्की होगा।
उपरोक्त उद्धरणो में नेमिचन्द्र को छोडकर केवल श्वेताम्बर आचार्यों का कल्की के समय के बारे मे मत है। कल्को और उपकल्की वाला सिद्धान्त दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थो में भी पाया जाता है (जदिवसह, तिलोय पण्णती, पृ० ३४३)। तिलोयपण्णत्तो को अनुश्रुति के अनुमार (वही, पृ० ३४२) इन्द्र-पुत्र कल्की की उमर ७७ वर्ष की थी और उसने ४२ वर्ष राज्य किया। वह जैन-साधुओ से कर लेता था। उसकी मृत्यु किसी असुरदेव के हाथो हुई। उसके पुत्र का नाम अतिञ्जय कहा गया है।
अब हम देख सकते हैं कि कल्की के समय के बारे में दो भिन्न मत है और जहां तक पता लगता है इन मतो की उत्पत्ति मध्यकाल में हुई होगी। दिगम्वर-मत कल्की से कलयुग का सम्बन्ध जोडने तथा १००० वर्ष पर कल्की की उत्पत्ति वाले सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिए कल्की का समय वीरनिर्वाण से १००० वर्ष पर मानता है। इसके विपरीत श्वेताम्बर-मत इस समय को करोव-करीव दूना कर देता है। इन सवसे कल्की की वास्तविकता में सन्देह होने लगता है। केवल क्षमाश्रमण कल्की का समय वीरनिर्वाण ५६६ देते है, लेकिन इस समय का आधार कौन सी अनुश्रुति थी, इसका हमें पता नहीं है, पर आगे चलकर हम देखेंगे कि केवल यही एक ऐसा मत है, जो सचाई से बहुत पास तक पहुंच पाता है।
यहां यह जानने योग्य बात है कि तित्थोगाली की कल्की सम्वन्धी अनुश्रुति का प्रचार आचार्य हेमचन्द्र के समय तक अच्छी तरह हो चुका था, क्योकि महावीरचरित के १३वें सर्ग में उन्होने कल्की-आख्यान करीव-करीव तित्थोगाली के शब्दो मेंही दिया है (इन्डियन एन्टिक्वेरी, १९१६, पृ० १२८-३०)। कल्की का जन्म म्लेच्छ कुल में बतलाया गया है और उसका जन्मकाल वीरनिर्वाण स० १६१४ । पाख्यान के और बहुत से अग जैसे धन के लिए नन्दो के स्तूपो की खुदाई, जन-साधुओ पर अत्याचार तित्योगाली और महावीर-चरित में ज्यो-के-त्यो है । वाढ का भी वर्णन है, पर सोन नदी का नाम नही आया है.। सब कुछ साम्यता होते हुए भी महावीर-चरित के कल्की-आख्यान मे तित्थोगाली की-सी सजीवता नही है। महावीर-चरित में आचार्य पाडिवत् का भी नाम नहीं है। वाढ के बाद नगर का पुननिर्माण, वाद में जैन-साधुप्रो पर अत्याचार तथा अन्त में इन्द्र द्वारा कल्की का वघ, ये सब घटनाएँ दोनो अनुश्रुतियो मे समान रूप मे वर्णित है। दोनो की तुलना करते हुए यह मानना पडता है कि तित्थोगाली वाली अनुश्रुति पुरानी