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________________ विन्ध्यखण्ड के वन डा० रघुनाथसिंह बुन्देलखड की सीमा के सम्बन्ध में जब हम विचार करते है तो हमारी दृष्टि के सामने सहसा वह मानचित्र आ जाता है, जिसे राजनैतिक रूप में वुन्देलखड कहते है । इस भू-खड की ये सीमाएँ अठारहवी सदी के मध्य या पूर्व काल में शासको ने अपनी सुविधा या नीति के दृष्टिकोण से रची है और इस भू-खड के इतिहास पर भी दृष्टि डालें तो प्रतीत होता है कि बुन्देलखड की राजनैतिक सीमाएँ निरन्तर बदलती रही है। राजनैतिक सीमानो के अतिरिक्त प्रत्येक प्रदेश की दो सीमाएं और होती है। इनमें एक तो सास्कृतिक है और दूसरी प्राकृतिक । सास्कृतिक रूप में बुन्देलखड कहाँ तक एक माना जा सकता है, इस पर प्रस्तुत लेख में विचार करना सम्भव नही, परन्तु यह निर्विवाद बात है कि वुन्देलखड प्राकृतिक रूप में सदा एक ही रहा है । बुन्देलखड का सही नाम प्राकृतिक दृष्टि से विन्ध्यखड है, अर्थात् विन्ध्य पर्वत का देश। यह देश भारतवर्ष के मध्य भाग में है । इमका देशान्तर ७८-८२, अक्षाग २६-२३ के लगभग है और कर्करेखा इसके निचले मध्य भाग मे ने जाती है। चार मरिताएं इसकी सीमाएँ मानी जा सकती है-चम्बल पश्चिम में, यमुना उत्तर मे, टोस पूर्व में और नर्मदा दक्षिण मे। इस भूभाग का ढाल दक्षिण से उत्तर की ओर है। नर्मदा के उत्तरी कूल पर महादेव और मैकाल श्रेणियो तथा अमरकटक से प्रारम्भ होकर यमुना के दक्षिणी कूल पर पहुंचता है। वीच-बीच मे कई छोटीवडी पर्वतश्रेणियां है। इनका नाम सस्कृत में 'विन्ध्याटवी' है। उच्चतम पृष्ठ-भाग ममुद्र की सतह से तीन हजार फुट ऊंचा है और ढाल के उत्तरी अन्तिम छोर पर लगभग पांच सौ फुट रह जाता है। यही कारण है कि विन्ध्यखड की सरिताएं उत्तरोन्मुखी है। विन्ध्यखड का भूभाग प्राचीन चट्टानो का देश है । भूगर्भ शास्त्र बताता है कि ये चट्टानें पृथ्वी की प्राचीनतम चट्टाने है। जिन दिनो वर्तमान मारवाड और कच्छ की मरुभूमि पर समुद्र लहराता था और गगा की भूमि, विहार और वगाल भीषण दलदलो से आच्छादित थे उन दिनो भी हमारा यह भूभाग वहुत कुछ लगभग ऐसा ही रहा होगा। भारत के प्रति प्राचीन पृष्ठ-भाग में इसकी गणना है। एक युग था जव कि पृथ्वी के भूभाग पर वन ही वन था। मानव-समुदाय ज्योज्यो वढने लगा, वह अपने स्वार्थ के लिए वनो का नाश करने लगा। धीरे-धीरे मानव की आवश्यकताएं भी वढने लगी। इसे लकडी आदि के अतिरिक्त खेती के लिए भूमि की आवश्यकता हुई। परिणामत वन घटने लगे। वनो का यह नाश अनवरत गति से मानव के हाथो से हो रहा है । वह पृथ्वी के पृष्ठ-भाग को अ-वनी करने में लगा हुआ है । जहाँ-जहाँ मानव वढे और उन्नतिशील हुए वहाँ-वहाँ वनो का नामनिशान तक न रह सका। इसके उदाहरण ढूढने के लिए हमें दूर न जाना होगा। उत्तर-पश्चिमी पजाव को लीजिए। जहां इस समय सूखी और नगी पहाडियाँ दिखाई देती है वहाँ आज से कुछ सौ वर्ष पहले वन थे। सिकन्दर ने जव मिन्यु के कूलो पर डेरे डाले थे उन दिनो वहां सघन वन थे। वर्तमान मुलतान और सिन्यु की उपत्यका वनो से भरी पड़ी थी। महमूद गजनी की चढाइयो के वर्णन में कावुल से कालिंजर तक वह जहाँ पहुंचा, उमे वन मिले । हमारे पडोस की वृजभूमि में भी बहुत से वन थे। जहाँ गोपाल गाएँ चराते थे, अव वनो के अभाव में वृन्दावन मे धूल उडती है और महावन में करील खडे है। गगा के दुअआवे, सरयू के अचल और विहार में अभी-अभी एक सौ वर्ष पहले तक जहाँ वन थे, वहाँ मुर्दे जलाने को लकडी मिलने में कठिनाई हो रही है। सच तो यह है कि मानव से बढ़ कर वन का शत्रु और कोई नही है ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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