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'वीच' को व्युत्पत्ति शब्द उपलब्ध है। फलत प्रा० "विच्च-' स० 'वर्त्म-' का परिवर्तित रूप नही हो सकता। यह व्युत्पत्ति असम्भव है।
पिशेल् ("ग्रामाटिक् देर् प्राकृत-पाखेन्" । २०२) प्रा० 'विच्च-' की व्युत्पत्ति एक दूसरे प्रकार से करते है। इनके अनुसार 'विच्च-' का विकास प्रा० 'वच्चई' (<स० 'व्रजति') "जाता है" से हुआ है । स्पष्ट है कि यह व्युत्पत्ति 'विच्च-' के "मार्ग" अर्थ के आधार पर ही सोची गई है। किन्तु, जैसा ऊपर कहा जा चुका है, 'विच्च-' का अर्थ "मार्ग" नही हो सकता। अत 'विच्च-' का उद्भव 'वच्चई' से होना भी नही माना जा सकता। "जाना" और "मध्य, अन्तर, अवकाश" अर्थों में कुछ भी सम्बन्ध नही बनता।
एक तीसरी व्युत्पत्ति “हिन्दी-गब्द-सागर" तथा डा० धीरेन्द्र वर्मा के "हिन्दी भाषा का इतिहास" (इलाहावाद, १९३३, पृ. २४६) में बताई गई है। इनकी सम्मति में हिन्दी 'वीच' का सम्वन्ध मस्कृत की 'विच्' ("पृथक् करना") धातु से है । दोनो ग्रन्थो में केवल 'पिच्' धातु का सकेत किया गया है, "विच्' से 'वीच' का विकास, अर्थ और ध्वनिपरिवर्तन की दृष्टि से, कैसे हुआ, इसकी विवेचना नहीं की गई। अनुमानत , 'वीच' (मध्य) किसी वस्तु को दो भागो में पृथक् करता है, इस आवार पर, अथवा, 'वीच' के दूसरे अर्थ "अन्नर, अवकाश" के आधार पर, इसका सम्बन्ध 'विच्'="पृथक् करना" से जोडा गया है। किन्तु यह सम्बन्ध "खीचातानी" ही है । "मध्य" मे "पृथक् करने" का अर्थ असन्निहित है। पृथक् करना तो तीन या चार या अधिक भागो में भी हो सकता है। हाँ, “अन्तर, अवकाश" और "पृथक् करना"मे कुछ सम्बन्ध बन सकता है, किन्तु वीच'का मुख्य, प्रारम्भिक अर्थ"मध्य" है,"अन्तर, अवकाश" अर्थ का विकास वाद में हुआ है (देखिए, पृ० ६६) । इसके अतिरिक्त सस्कृत की 'विच्' धातु मामान्यतया किसी एक वस्तु का विभाग करने के अर्थ मे नही, अपितु दोसग्लिष्ट वस्तुप्रो (जैसे अन्न और भूसी) को एक-दूसरी से पृथक् करने (sift) के अर्थ में प्रयुक्त होती है।' मस्कृन के 'विवेक', 'विवेचन' आदि शब्दो के प्रयोग ('नीर-क्षीर-विवेक', 'गुण-दोष-विवेचन' आदि) पर ध्यान देने मे 'विच्' का तात्त्विक अर्थ स्पष्ट हो जाता है। 'वीच' में इस अर्थ की छाया अलभ्य है।
ध्वनि-परिवर्तन की दृष्टि से, हिन्दी वीच' का विकास 'विच्' धातु से बने हुए किस सस्कृत-गब्द से हुआ, इसका स्पप्टीकरण भी आवश्यक है, किन्तु "हिन्दी-गब्द-सागर" अथवा "हिन्दी भाषा का इतिहास" मे इस विषय में कुछ भी सकेत नही किया गया। प्रा० 'विच्च' का तो दोनो ग्रन्यो में निर्देश भी नही है। फिर भी केवल ध्वनि की दृष्टि से हि० 'वीच' का सम्बन्ध स० 'विच्' से माना जा सकता है। किन्तु अर्थ-सम्वन्धी कठिनता के कारण अन्त मे इस व्युत्पत्ति को भी मान्य-कोटि में नही रक्वा जा सकता।
हिन्दी 'वीच' के पूर्वज प्रा० 'विच्च' की एक अन्य व्युत्पनि टर्नर ने ("नेपाली डिक्शनरी") नेपाली 'विच' (=वीच) शब्द की विवेचना में दी है। इनकी सम्मति है कि प्रा. 'विच्च'का उद्गम स० वीच्य-' शब्द से होना सम्भव है । तुलना के लिए टर्नर ने स. के 'उरुव्यञ्च्-' ("सुविस्तृत, दूर तक फैला हुआ") तथा 'व्यवस्-' ("विस्तृत - स्थान") शब्दो का निर्देश किया है। साय ही उन्होने प्रा० 'विच्च' के अर्थ "मध्य" तथा "मार्ग" दोनो दिये है।
ध्वनि-परिवर्तन की दृष्टि से स० *'वीच्य' का प्रा० "विच्च' हो जाने में कोई वाधा नही है । स० 'वीच्य'
'देखिये, “पाइयसद्दमहण्णवों" में 'वट्ट' नं० ४। हेमचन्द्र-कृत "देशीनाममाला" (पिशेल द्वारा सम्पादित, बम्बई, १९३८, द्वितीय सस्करण) के अनुसार 'वट्टा' (="मार्ग") शब्द देशी है।
'दे० पाल्स्डोर्फ, "अपभ्रश-प्टूडिएन" पृ० ७६ ।।
'देखिये मॉनियर विलियम्स कृत "संस्कृत-इग्लिश डिक्शनरी" (ऑक्सफोर्ड, द्वितीय सस्करण, १८६६), पृ० ६५८।
"सं० स्पर्शव्यञ्जन+'य' के स्थान पर प्राकृत में सामान्यतया स्पर्शव्यञ्जन+स्पर्शव्यञ्जन हो जाता है।