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प्रमो-प्राभनदन-प्रय
ग्रन्थ का रचनाकाल भगवान महावीर के निवांप के ४७० वर्ष पश्चात् विक्रम काल की उलनि होती है और विक्रम काल के १०७६ वर्ष व्यतीत होने पर माघ शुक्ला दममी के दिन इन जम्बूस्वामीचरित्र का आचार्य-परम्परा ने सुने हुए बहुलार्यक प्रशस्त पदो म नकलित कर उद्धार किया गया, जैसा कि अन्य प्रगति के निम्न पद्य में प्रकट है
वरिसाण सयचउक्के सत्तरिजुत्ते जिणेंद वीरस्त । जिवापा उववण्णा विक्कमकालस्त उप्पत्ती ॥१॥ विक्कमणिवकालानो छाहत्तरदससएसु वरिताण । माहम्मि सुद्धपक्खे दतमोदिवसम्मि सतम्मि ॥२॥ मुणिय आयरियपरपराए वीरेण वीरणिहिट्छ ।
बहुलल्य पसत्यपय पवरमिण चरियमुद्धरिय ॥३॥ इन का यह ग्रन्य जोवन-परिचय के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक व्यक्तियो के उल्लेखो और उनके सामान्य परिचयो से परिपूर्ण है। इसमे भगवान महावीर और उनके ममकालोन व्यक्तियो का परिचय उपलव्व होता है, जो इतिहामशो और अन्वेपण-कांगो के लिए बड़ा ही उपयोगी होगा।
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यह प्रन्य-प्रति भट्टारक महेन्द्र कीति अम्बेर या आमेर के गास्त्रभडार की है, जो पहले किनो समय जयपुर राज्य की गजवानी थी। इस प्रति की लेत्रक-प्रगस्ति के नौन ही पद्य नमुपलब्ध है, क्योकि ७वे पन मे आगे का ७७वाँ पत्र उपलब्ध नहीं है। उन पद्यो मे प्रथम व द्वितीय पद्य में प्रति-लिपि के स्थान का नाम-निर्देश करते हुए 'झमना के उनुग जिन-मन्दिरो का भी उल्लेख किया है और ततीय पद्य मे उमका लिपि-ममय विक्रम संवत् १५१६ मगगिर शुक्ला त्रयोदशी बतलाया है, जिससे यह प्रति पांच नौ वर्ष के लगभग पुरानी जान पडती है। सरसावा ] .
'मन्ये वय पुण्यपुरी बभाति, सा मुझणेति प्रकटीबभूव । प्रोत्तुगतन्मडनचैत्यगेहा सोपानवदृश्यति नाकलोके ॥१॥ पुरस्सरारामजलवप्र, कूपा हाणि तत्रास्ति रतीव रम्या (2)। दृश्यन्ति लोका घनपुण्यभाजो ददाति दानस्य विशालशाला ॥२॥ श्रीविक्रमान गते शताब्दे, षडेकपचकसुमार्गशीर्षे । त्रयोदशीया तिथिसर्वशुद्धा श्रीनवूस्वामीति च पुस्तकोऽय ॥३॥