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हिन्दू-मुस्लिम-सवाल का आध्यात्मिक पहलू
२०७ 'उस नई सस्कृति, नये समाज और नई धार्मिक कल्पना को जन्म देगी, जो अलग-अलग सकीर्ण कल्पनामो से वढकर और उनसे ऊंची होगी।
इन तीनो अलग-अलग लहरो की हम एक छोटी-सी मिसाल ईंट-पत्थरो की ठोस शकल में देना चाहते है। फन्ने तामीर यानी गृह-निर्माण-कला में अगर हमे एक तरफ इस्लाम से पहले के पुराने हिन्दू प्रादर्शो को देखना हो तो दक्षिण के मन्दिर है। कुर्सी के ऊपर कुर्सी, कगूरे के ऊपर कगूरा, ठोस पत्थर, आसमान से बात करते हुए कलश और मन्दिर के चारो तरफ की दीवारो की एक-एक इच जगह मूर्तियो से ढकी, ठीक उसी तरह जिस तरह हिन्दुस्तान के घने जगल । इन इमारतो का अपना एक गौरव है। दूसरी तरफ वाहर से आने वाले इस्लामी आदर्श का नमूनाअजमेर और दिल्ली की मसजिदें, साफ-सफाचट दीवारे, जिनमें मिवाय अल्लाह के कोई चीज़ दिखाई न दे, गोल सफेद गुम्बद और ऊँचे मीनार, अरव के बयावान रेगिस्तान की याद दिलाने वाले । इनकी भी अपनी एक अलग शान है। तीसरे इन दोनो आदों का मेल, इनकी एक दूसरे पर कलम, इनका प्रेमालिंगन अगर देखना हो तो आगरे का ताज, जो दुनिया की सबसे सुन्दर इमारतो मे गिना जाता है और जो आज भी इस देश के सडे-गले जिस्म पर झूमर की तरह लटक रहा है। यही हाल हमें और सब कलाओ और विद्याओं में दिखाई देता है । मुगल सल्तनत के ज़माने में न जाने कितने नये पौधे, कितनी नई तरह के फल, नये फूल, नये-नये जानवर, नई तरह के कपडे इस मुल्क मे आये और न जाने कितने नये-नये खाने और नई-नई मिठाइयां जारी हुई। आजकल के दिल्ली या प्रागरे या मथुरा के किसी भी हलवाई की दुकान की मिठाइयाँ तथा ढाका और मुर्शिदावाद के रेशमी और सूती कपडो के नाम हमे अपनी ईजाद के समय की याद दिला रहे है।
यह मेल-मिलाप की लहर हमारे रूहानी यानी आध्यात्मिक जीवन मे भी गहरी चली गई थी। कवीर, दादू, नानक, पल्टू, चैतन्य, तुकाराम, वावा फरीद, वुल्लेशाह, मुईनुद्दीन चिश्ती और यारी साहव जैसे सैकडो हिन्दू और मुसलमान फकीर हिन्दू धर्म और इस्लाम, दोनो के ऊपरी कर्म-काण्डो से ऊपर उठकर हमे प्रेम-धर्म का सन्देश सुना रहे थे और देशभर में चारो ओर प्रेम के सोते बहा रहे थे। हिन्दू धर्म ने इस्लाम के सम्पर्क से अपने अन्दर अनेक सुधार की लहरें पैदा की। अनेक हिन्दू प्राचार्यों ने जात-पात और छुवाछूत को तोडने और प्रादमी आदमी के बीच वरावरी कायम करने का उपदेश दिया। हिन्दू धर्म के सम्पर्क से इस्लाम का जरूरत से ज्यादा नुकीलापन या कटीलापन भी टूटा । मुसलमान फकीरो और महात्माग्रो के मजारो पर वसन्त के दिन वसन्ती चादरे चढाई जाने लगी। मुसलमान वादशाहो के दरवारो में होली, दिवाली, रक्षावन्वन और दशहरा जगह-जगह उसी प्रेम, उसी जोश और उसी उमग से मनाया जाता था, जिस तरह हिन्दू दरवारो में। कोई सन्देह नहीं कि अगर थोडा-सा और समय मिल गया होता तो यह देश उस जमाने के हिन्दू धर्म और इस्लाम के मेल से अपने अन्दर उसी तरह एक नया मिलाजुला और ज्यादा ऊंचा जीवन पैदा करके दिखला देता, जिस तरह इससे पहले की सव टक्करो के वाद दिखला चुका था, पर उस शुभ दिन के आने से ठीक पहले देश में एक तीसरी ताकत ने कदम रक्खा ।
इस नई विदेशीताकत को अपना भला इसी मे दिखाई दिया कि देश की इन दोनो जमातो को एक दूसरे से मिलने से रोके । इन दोनो को फाडे रखने में ही उसे अपनी ज़िन्दगी दिखाई दी। सन् १७५७ से लेकर आजतक तरह-तरह की चालो, कूटनीतियो और सियासी तदवीरो के जरिये देश के हिन्दू और मुसलमानो को एक दूसरे से अलग रखने के पूरे जतन किये गये। रोग बीज रूप में शरीर के अन्दर मौजूद थाही। उसे सिर्फ भडकाने और वढाने की जरूरत थी। सरकारी नौकरियो में होड,म्यूनिसपैलिटियो और एसेम्बलियो के चुनाव,पृथक् निर्वाचन (Separate electorate), अलग-अलग यूनीवर्सिटियों, महासभा और लीग, अखड भारत और पाकिस्तान, इन सब ने देश की इस कठिन समस्या को उलझाने में हिस्सा लिया है। पर ये राजकाजी हथकडे हमें सिर्फ इसीलिए नुकसान पहुंचा सके, क्योकि फूट, अलहदगी और दुई के वीज हमारे अन्दर मौजूद थे। बाहर के कीटाणु या जर्स उस समय तक रोग पैदा नही कर सकते,