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सुधारक प्रेमीजी
श्री कृष्णलाल वर्मा
(१) सन् १९१२ में जब दिल्ली में पचम जार्ज का राज्यारोहण-उत्सव हुआ था, लाखो की भीड इकट्ठी हुई थी। जैनियो के भी अनेक विद्वान् आये थे। प्रेमीजी भी पधारे और गुरुवर्य स्व० अर्जुनलाल जी सेठी के साथ मै भी गया। इसी अवसर पर जैन-विद्वानो के स्वागतार्थ पहाडीधीरज पर ला जग्गीमल जी के मकान पर एक सभा हुई, जिसमे प्रेमीजी भी उपस्थित थे। उनसे प्रथम परिचय इसी सभा में हुआ। सभा की समाप्ति पर सब लोग बाहर आये। भोजन की उस दिन वही व्यवस्था की गई थी, लेकिन प्रेमीजी नही ठहरे। जाने लगे तो सेठी जी ने ला० जग्गीमल से कहा, "प्रेमीजी जा रहे है। उन्हें रोकिये।"
प्रेमीजी आगे बढ गये थे। लाला जी ने अपने गुमाश्ते को उन्हे बुलाने के लिए भेजा। गुमाश्ते ने पुकारा, "ओ, म्याँ पडिज्जी । प्रो म्याँ पडिज्जी ।" लेकिन प्रेमीजी नही रुके। उन्हें क्या पता था कि 'म्यां पडिज्जी ।' कह कर उन्ही को पुकारा जा रहा है । अन्त में गुमाश्ता दौड कर प्रेमीजी के सामने गया और बोला, "अजी साहब, आपको लाला जी बुला रहे हैं।' प्रेमीजी लौट आये और 'म्यां पडिज्जी' सम्बोधन पर खासी दिल्लगी रही।
x खास-खास जैनी भाइयो के लिए दिल्ली वालो ने एक स्थान पर भोजनशाला की व्यवस्था कर दी थी। पहले ही दिन बुन्देलखड के एक सिंघई को साथ लेकर भोजनशाला का पता लगा कर प्रेमीजी वहां पहुंचे तो देखते क्या है कि पाजामा पहने नगे बदन कई आदमी रसोई बना रहे है। उन्ही जैसे और भी आदमी काम में लगे थे। सिंघई जी को सन्देह हुआ। बोले, "अरे, यहाँ तो मुसलमान भरे हुए है। कही हम लोग भूल तो नही गये?"
प्रेमीजी ने कहा, "नही, ये अग्रवाल जैनी है।"
"जैनी "सिंघई जी आश्चर्य से वोले, "ये कैसे जैनी है कि जिनके सिर पर चोटी भी नहीं है और बदन पर धोती के बजाय पाजामा पहने है।" प्रेमीजी उन्हें मुश्किल से समझा सके।
(२)
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सन् १९१३ की वात है । मैं उस समय वर्द्धमान विद्यालय जयपुर में पढता था। एक दिन स्व० अर्जुन लाल जी सेठी के स्व० पुत्र प्रकाशचन्द्र जी का जन्मोत्सव मनाया गया। उस अवसर पर समाज-सुधारक और राष्ट्रीय क्रान्तिकारी लोग ही सम्मिलित हुए थे। उनके प्रगतिशील विचारो के आधार पर एक लेख तैयार करके मैने 'जैन हितैषी' मे छपने के लिए प्रेमीजी के पास भेज दिया। आशा तो न थी कि छप जायगा , लेकिन कुछ दिन बाद ही प्रेमीजी का पत्र मिला। लिखा था_ "लेख मिला । छप जायगा। लिखते समय भाषा का ध्यान रक्खा करो। इस तरह के लेख जब मौका मिले, अवश्य भेजो।"