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प्रजभाषा का गद्य-साहित्य
१०५ कह पायो नहीं। पाछे श्री स्वामिनी जी के चरण-कमल को आश्रय कियो है। तब उपमा देवे कू हृदय में स्फूर्ति भई । जैसे श्री ठाकार जी को अधरबिम्ब प्रारक्त है रसरूप । तेसेई श्री स्वामिनी जी के चरण पारक्त है । सो नाते श्री चरण-कमल को नमस्कार करत है। तिन में अनवट विछुमा नूपुर आदि आभूषण है। . यह गद्य बिलकुल स्पष्ट और व्यवस्थित है। इससे पता लगता है कि सन् १५५३ के लगभग गद्य का प्रयोग ग्रन्थरचना के लिए वरावर किया जाता था। उक्त अवतरण में सस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दो का प्रयोग प्रचुरता से किया गया है। 'पुष्टिमार्ग मे जितनी क्रिया है', 'श्री स्वामिनी जी के चरण आरक्त हैं', 'नूपुर आदि प्राभूषण है', इत्यादि प्रयोग राधावल्लभी सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोमाई श्री हितहरिवश जी की चिट्ठी में आये हुए, 'सुख अमृत स्वरूप है' 'तुम पर बहुत प्रसन्न है', 'हमारी भेट यही है' आदि से मिलते-जुलते है।
इसी समय के लगभग चौरासी वैष्णवो की वार्ता' और 'दो सौ बावन वैष्णवो की वार्ता' का गद्य सामने आता है। अब तक ये ग्रन्थ गोस्वामी विट्ठलनाथ के पुत्र गोस्वामी गोकुलनाथ के नाम पर, जिनका समय सन् १५६८ से १५९३ के आसपास है, प्रचलित थे। इधर अपने इतिहास के नये सस्करण में शुक्ल जी ने अपना यह मत दिया है कि प्रथम 'वार्ता' गोकुलनाथ के किसी शिष्य की लिखी जान पडती है, क्योकि इसमें गोकुलनाथ का कई जगह बडे भक्तिभाव से उल्लेख है । इसमे वैष्णव भक्तो तथा आचार्य श्री वल्लभाचार्य जी की महिमा प्रकट करने वाली कथाएँ लिखी गई है। इसका रचनाकाल विक्रम की सत्रहवी शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जा सकता है। दो सौ वैष्णवो की वार्ता' तो और भी पीछे औरगजेब के समय के लगभग लिखी गई जान पडती है । डाक्टर धीरेन्द्र वर्मा का भी यही मत है कि ये दोनो 'वार्ताएँ' एक ही लेखक की रचनाएँ नही है। इस सम्बन्ध मे हमे यह निवेदन करना है कि गोकुलनाथ जी का बडे भक्तिभाव से उल्लेख देखकर ही हम प्रथम 'वार्ता' को उनके किसी शिष्य की लिखी मानने के पक्ष मे नही है । सम्भव है, जिन स्थलो पर गोस्वामी जी की प्रशसा की गई है वे प्रक्षिप्त हो। गोकुलनाथ जी के समकालीन कवियो के काव्यो मे भी जव प्रक्षिप्त अश पाया जाता है-काव्यो मे कुछ जोडना गद्य की अपेक्षा स्वभावत कठिन हैतव गद्य में ऐसा होना असम्भव नही जान पडता है। जो हो, ये 'वार्ताएँ' सत्रहवी शताब्दी मे रची मानने के लिए प्राय सभी विद्वान तैयार है। इनकी भाषा का नमूना देखिए(१) चौरासी वैष्णवन की वार्ता
(क) तब सूरदास जी अपने स्थल तें प्रायके श्री प्राचार्य महाप्रभून के दर्शन को पाये। तब श्री प्राचार्य महाप्रभून ने कह्यो जो सूर पावी बैठो। तव सूरदास जी श्री प्राचार्य जी महाप्रभून के दर्शन करिके आगे आय बैठे तब श्री प्राचार्य महाप्रभून ने कही जो सूर कछ भगवद्यश वर्णन करौ। तव सूरदास ने कही जो प्राज्ञा।'
। (ख) सो सूरदास जी के पद देशाधिपति ने सुने । सो सुनि के यह बिचारी जो सूरदास जी काहू विधि सो मिले तो भलो । सो भगवदिच्छा ते सूरदास जी मिले । सो सूरदास जी सो को देशाधिपति ने जो सूरदास जी में सुन्यो है जो तुमने बिनयपद बहुत कीये हैं । जो मोको परमेश्वर ने राज्य दीयो है सो सब गुनीजन मेरौ जस गावत है ताते तुमहूँ कछु गावी । तव सूरदास जी ने देशाधिपति के आगे कीर्तन गायो।'
"हिन्दी साहित्य का इतिहास (सशोधित और परिवद्धित सस्करण) स० १९६७, पृ० ४७९-८० देखिए 'हिन्दुस्तानी' अप्रैल १९३२, भाग २, स० २, पृ० १८३ "चौरासी वैष्णवों की वार्ता', पृ० २७४
"जो-कि । 'कि' का प्रयोग बहुत समय बाद होने लगा था। सम्भव है, वह फारसी से लिया गया हो। यद्याप कई विद्वानों की राय इसके प्रतिकूल है। वे इसकी उत्पत्ति 'किम्' से मानते है। देखिए-फुटनोट-हिन्दुस्तानी (५-३) पृ० २५४
"चौरासी वैष्णवों की वार्ता, पृ० २७६
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