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प्रेमी-अभिनदन-प्रय दूसरा उदाहरण एक वियुक्त नायिका का दृश्य अकिन करता है
हिझडा फुट्टि तडत्ति करि कालक्खे। काई। देक्स हदविहि कहिठवइ पइ विण दुक्ख-सयाइ ।
-वही. ८. ३५७ ३. एक बालवर्णन का चित्र भी यह दिखाने के लिए यहाँ उदघृत करते है कि उसे पढ़ कर भक्त-कवियो के वालवर्गन को याद आ जाती है समानता भले ही कम हो। ऋषभदेव की बाललीला का वर्णन है
तेसवलीलिया कोलमतीलिया।
पहुणादाविया केण ण भाविया ॥ - धूलोधूसर वयकडिल्तु सजायकदिलकोतलु जडिल्लु । घत्ता-हो हल्लर जो जो सुहु सुअहिं पई पणवतउ भूयगणु। णदइ रिज्झइ दुक्कियमलेण कातुवि मलिगुण ण होइ मणु ॥
धूलीधूसरो कडिकिकिणीसरो। णिरुवमलीलउ कोलइ वालउ ।
पुष्पदन्त-महापुराण-प्रयमखण्ड । 'हो हल्लर' इत्यादि मब्दो को पढते समय 'हलराय दुलराय' आदि शब्दो की ओर ध्यान चला ही जाता है। तात्पर्य यह कि इस प्रकार के वर्णनो की झलक सूरदास मे मिल जाती है, यह इसलिए कि दोनो ही लोक-जीवन के वाभाविक वातावरण ने लिये गये है। अत नक्षेप में हम कह सकते है कि हिन्दी की नमी काव्य-पद्धतियो का सष्ट न्वरूप हमें जैन-कवियो द्वारा प्राप्त हुआ है।
अब हम घोडा छन्दो पर विचार करके इस चर्चा को समाप्त करने। हिन्दी-साहित्य मे दोहा छन्द के दर्शन हमें सर्वप्रथम होते है। दोहा छद अपभ्रश का छन्द है। कालिदास के विक्रमोर्वशीय नाटक में भी एक दोहे के दर्शन होते हैं। उन अपभ्रम पचो की प्रामाणिकता के विषय में कहने का यह उचित स्थल नही है। उस पर विचार करने को आवश्यक्ता अवश्य है। जो हो, जैन-कवियो द्वारा इस छन्द का प्रयोग सबसे पहले हुआ। उपदेश आदि के लिए यह चन्द वहुन लोकप्रिय हो गया। सन्त कवियों ने आगे चल कर इने अपने उपदेशो का माध्यम बनाया।
जर हम दोहे का प्रयोग शृगार के लिए भी दे चुके है। अत विहारी जैने कवियो ने उसमे सफलतापूर्वक शृगार रचना भी की है।
दोहा-चौपाई के ढग की रचनाएँ भी अपभ्रश नाहित्य में हमे पर्याप्त मिलती है। चौपाई के पश्चात् दोहे के स्थान पर पत्ता' का प्रयोग हुआ है। पचमचरिय, भविष्यदत्तकथा, जसहरचरिउ, णायकुमारचरित, करकडूपरिज, सुदर्शनचरिउ आदि ग्रन्यो में दोहा-चौपाई के ढग को छन्द-व्यवस्था ही है। इन ग्रन्यो में चौपाई के स्थान पर अन्य छन्दो का भी प्रयोग हुआ है, लेकिन पत्ता' का प्रयोग कडवक को पूरा करने के लिए अवश्य हुआ है। हिन्दी में जापती के 'पद्मावत', तुलनीदास के 'मानस' में यही छन्द-व्यवस्था है, केवल दोहे ने पत्ता' का स्थान ले लिया है।
इसने अतिरिक्त अन्य कई मात्रिक छन्दो का प्रयोग भी हिन्दी में अपभ्रम द्वारा ही आया है। विद्यापति, नृरदान एव अन्य भक्त कवियो के पद पहेली बने हुए है, लेकिन अपनग छन्दो पर विचार करने से वह परम्परा स्पष्ट हो जाती है। अपभ्रम कवि छन्द के दो चरणो को स्वतन्त्र पूर्ण चरण मान लेते है अर्थात् चौपाई के पूरे चार चरण लिखने की आवक्ता वे नहीं मममने है। दो चरण ते ही छन्द नमाप्त कर देते है। कभी एक चरण ही रख देते है और उनको न्यायी या ध्रुवक के रूप में कुछ पक्तियो के बाद दुहराते होगे। पदो को टेक या स्थायी का रूप इसी