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जैन साहित्य की हिन्दी साहित्य को देन
४६६ में हमे मिलता है । उमके वाद और छन्दो की पक्तियाँ रख कर पद या पूर्ण गीत वन जाता है । अपभ्रंश मे संगीत की, लय की प्रधानता है, वर्णन स्वाभाविक रहता ही है। सगीत और लय दोनो का अपभ्रंश -कविता में सुन्दर विकास हुआ और यही हिन्दी पदशैली में हमें मिलता है । जयदेव श्रादि में वह सब ढूढने का प्रयाम निष्फल है । जयदेव पर भी अपभ्रश का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है । अपभ्रंश के छन्द प्राय सगीत प्रधान है, वे ताल - गेय है । हिन्दी की पदशैली में भी यह सव है ।
इस प्रकार हम देखते है कि जैन साहित्य ने भावधारा, विषय, छन्द, शैली आदि अनेक प्रकार के साहित्यिक उपकरण हिन्दी-साहित्य को प्रदान किये हैं । अभी तक बहुत कम जैन पण साहित्य प्रकाश में आया है। अधिकाधिक प्रकाश में आने पर यह प्रभाव और भी स्पष्ट होगा ।
शातिनिकेतन ]