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प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ खैर, पोस्टेज की कमी के सवव से "हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' को अपनी उन्नति मे जो सहारा मिला, उसे तो हम निमित्त कारण कह सकते है, भले ही वह निमित्त-कारण कितना ही महत्त्वपूर्ण क्यो न हो । उमकी उन्नति के प्रमुख - कारण दूसरे ही है। मेरी समझ में नीचे लिखे कारण उसमे मुख्य है
(१) ग्रन्यो का चुनाव-दादा अपने यहाँ मे प्रकाशित होने वाले ग्रन्यो का चुनाव वढी मेहनत से करते हैं। प्रकाशनार्थ जितने अन्य हमारे यहां आते है, उनमें से सो मे मे पिचानवे तो वापिस लौटा दिये जाते है। फिर भी लोग वहुत ज्यादा अपनी पुस्तके दादा के पास भेजते है। हिन्दी मे अन्य प्रकाशको के यहां ने प्रकाशित हो जाने वाली अनेक पुस्तके ऐमी होती है जो हमारे यहाँ से वापिस कर दी गई होती है। चुनाव के वक्त दादा नीन बातो पर ध्यान देते हैं
(अ) प्रथम श्रेणी की पुस्तक हो, चाहे उसके विकने की आशा हो, चाहे न हो। (मा) पुस्तक मध्यम श्रेणी की हो, मगर ज्यादा विकने की आशा हो ।
(इ) लेखक प्रतिभाशाली हो तो उसे उत्साह देने के लिए। (अधम श्रेणी की किताब को, चाहे उसके कितने ही विकने की आगाहो, वे कभी नही पकागित करते। सचित प्रलोभन देकर जो लोग अपनी पुस्तक प्रकाशित करवाना चाहते है, उनकी पुस्तक वे कभी नही छापते। एक दफे की बात मुझे याद है कि एक महाशय ने, जिनका हिन्दी माहित्य-सम्मेलन के परीक्षा-विभाग मे सम्बन्ध था, दादा को पत्र लिखा कि में अपना अमुक उपन्यास और कहानी-संग्रह आपको भेज रहा हूँ। इसे आप अपने यहां से प्रकाशित कर दीजिए। मैं भी आपके लिए काफी कोशिश कर रहा हूँ। आपकी नीन पुस्तके मै मध्यमा के पाठ्यक्रम में लगा रहा हूँ। कहना न होगा कि दादा ने उनका उपन्यास और कहानी-संग्रह वैरगही वापिस भेज दिया। सम्मेलन का पाठ्यक्रम छाते-छपते उसमे से भी पाठ्यक्रम में लगी पुस्तको के नाम गायव हो गये। बाद में कभी भी दादा की कोई पुस्तक नहीं ली।
(२) उत्तम सशोधन और सम्पादन-हिन्दी के बहुत से प्रसिद्ध लेखक अवतक भी शुद्ध भापा नहीं लिवते। कुछ दिन हुए एक पुराने लेखक ने हमारे यहां एक पोयी छपने भेजी थी, जिसमे हिन्दी की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तको में की व्याकरण और रचना-सम्बन्धी हजारो गलतियाँ सगृहीत की गई थी, पर उस पोथी को दादा ने छापा नहीं। जो भी पुस्तके "हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' से प्रकाशित होती हैं, उनका सशोधन वडे परिश्रमपूर्वक किया जाना है और अन्तिम प्रूफ लेखक की सम्मति के लिए रसके पास भेज दिया जाता है। मशोधन में इस बात का ध्यान रक्खा जाता है कि उससे लेखक की लेग्वन-शैली में फर्क न होने पावे। सशोधन मे दादा ने स्वर्गीय प० महावीर प्रसाद जी द्विवेदी के ढग को बुरी तरह अपना लिया है। जान स्टुअर्ट मिल को द्विवेदी जी ने जिस तरह मशोधित किया था उसे दादा ने अपने मानस-पटल पर रख छोडा है। अनुवाद-ग्रन्थो के प्रकाशित करने के पहले मूल से अक्षर-प्रक्षर दादा अपने हाथ से मिलाते है या मुझमे मिलवाते है। हिन्दी के प्रसिद्ध अनुवादक भी ऐमी भद्दी गलतियों करते है कि क्या कहा जाय। एक ही अनुवादक की 'हिन्दी-ग्रन्य-रत्नाकर' से निकली पुस्तक मे और अन्यत्र मे निकली पुस्तक मे बहुत बार बडा अन्तर दीव पडेगा। यह सब मेहनत करके भी सम्पादक या सशोधक के रूप में अपना नाम देने का दादा को शौक नहीं है।
(३) छपाई-सफाई-कितावो की छपाई-सफाई अच्छी हो, इस पर दादा का वडा ध्यान रहता है। उनका . कहना है कि वम्बई में वे इसीलिए पडे रहे है कि यहाँ वे अपने मन की छपाई-सफाई करवा सकते है । एक दफे उन्होने घर का प्रेस करने का विचार किया था और विलायत को मशीनरी का आर्डर भी दे दिया। पर उसी समय दो ऐसी घटनाएं हो गई, जिन्होने उनके मन पर वडा अमर किया और तुरन्त ही उन्होने घाटा देकर प्रेस की मशीनें बिकवा दी। उस समय मराठी मे स्वर्गीय श्री काशीनाथ रघुनाथ मित्र का मासिक पत्र 'मनोरजन' वडा लोकप्रिय था और करीव पांच-छ हजार खपता था। उसे वे पहले 'निर्णय-सागर प्रेस में और वाद में 'कर्नाटक-प्रेस' में छपवाते थे। प्रेस में काम की अधिकता के कारण कभी-कभी उनका पत्र लेट हो जाता था। कर्नाटक प्रेम के मालिक स्वर्गीय श्री गणपति राव कुलकर्णी ने खाम उनके काम के लिए कर्ज लेकर एक बहुत बडी कीमत की मशीन मंगाई। इसी बीच में मित्र महागय को खुद ही अपना प्रेस करने की सूझी और उन्होने प्रेस कर लिया। प्रेस कर लेने के बाद वाहर के