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भारतीय गृहों का अलंकरण
श्री जयलाल मेहता
घर को श्राकर्षक तथा शान्ति प्रद बनाये रखना नारी का एक गुण है । उसको उपस्थिति हो मानो घर की वा गोभा का हेतु है और घर के अंदर माता या पत्नी के रूप में अपने आदर्श के प्रति मच्ची भक्ति भावना रमते हुए उसका सचरण एक अनुपम सोदर्य का बोधक है । भारतीय सस्कृति में ठीक ही नारी को 'गृहलक्ष्मी' अर्थात् गृह की प्रष्ठात्री देवी का विरुद प्रर्पित किया गया है । भारतीय महिला ने इसके बदले में घर को एक आदर्श रूप प्रदान करके उसके लिये उसने अपना सपूर्ण व्यक्तित्व ही समर्पित कर दिया है ।
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भारतीय समाज के द्वारा नारी को गृहलक्ष्मीत्व का जो उपयुक्त सम्मान दिया गया है उमगे वह अपने दायित्व पर पूरी लगन के साथ सलग्न है । यही मुख्य मनोवैज्ञानिक तथ्य है, जिसके कारण हमारे अतर्गृह सौंदर्य तथा श्रानद प्रतिरूप बने हुए है । केवल इसी प्रातरिक भावना के होने पर अनेक प्रकार के फर्नीचर, दरवाजा पर लटकने वाले विविध झाड फनूस श्रादि अनावश्यक प्रतीत होगे । साफ-सुथरा फर्श, उम पर एक मादी चटाई और श्रास-पास कुछ सुन्दर पुष्पो की सुगन्ध केवल इतनी ही वस्तु से मानव- निकेतन का एक रमणीक चित्र उपस्थित किया जा सकता है ।
गृह का इस प्रकार का नितात सादा रूप किसी वैरागी महात्मा के लिये नहीं है । यह सौंदर्य का वह निसरा हुआ रूप है, जिसे जापानी तथा चीनी लोगो ने भी, जो ससार मे नवमे अधिक सौदर्य - प्रेमी विख्यात हैं, अपनाया है । इनके सर्वोत्तम सजे हुए कमरो का अर्थ है-एक साफ चटाई का फर्श, सुन्दर वर्णावली या किमी प्राकृतिक दृश्य मे युक्त एक लटकती हुई तसवीर, भली प्रकार मे को हुई पुष्प-रचना तथा ( यदि सभव हुआ तो ) एक छोटो काठ की मेज । वम इतना ही काफी है । यहाँ तक कि धनिक वर्ग के भी घरो की सजावट ऐमी ही रहती है । केवल उनमें प्रक्त वस्तुएँ अधिक कीमती होती हैं। घरो की सजावट करते समय स्थान की पवित्रता का वडा ध्यान रक्खा जाता है और उसे अधिक वस्तुओ की भरमार करके विरूप नही बना दिया जाता । श्राजकल के फैशन को, जिसमे वैभवप्रदर्शन के लिए कमरो को अलकरण से बोझिल कर दिया जाता है, वे लोग भद्दा समझते है ।
चीन और जापान मे घरो को इस प्रकार सुन्दर बनाने का उतना श्रेय वहाँ के महिला समाज को नही दिया जाता, जितना हम उसे भारत में देते हैं । यहाँ तो हम स्त्री को गृहलक्ष्मी तक का पद समर्पित करते है । उक्त देशो मेस्त्री का स्थान गौण है । अत उसकी उपस्थिति घर के वातावरण में प्रभावपूर्ण नही होती । इसके प्रतिकूल घर मे उसका सचरण मानो उस सुन्दर सजे हुए स्थान में किसी श्रापत्ति का सूचक होता है ।
उपर्युक्त वात हमारे इस कथन की सत्यता को ही प्रमाणित करती है कि जब तक नारी को पूर्ण महायता तथा सच्ची लगन के साथ अपने दायित्व को सभालने के लिए तत्पर नहीं किया जाता तब तक घरो को चाहे जितना भाज-श्रृगार से भर दिया जाय, उनमे श्रभीष्ट सौदर्य नही लाया जा सकता ।
प्राचीन हिंदू समाज-सुधारको ने इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को अच्छी तरह समझ लिया था । उन्होने हमारे गार्हस्थ्य जीवन तथा उससे सबंधित सामाजिक उपागो को एक ओर तो कुटुव के आदर्श पुरुष के और दूसरी ओर श्रादर्श नारी के जिम्मे रखकर इस दिशा मे यथेष्ट साफल्य प्राप्त कर लिया था। समय की गति में हम जीवन की विभिन्न गति-विधियो को अपनाने लगे और धीरे-धीरे अपने आदर्श मार्ग से च्युत हो गये । आज पुरुष नारी को उसके अधिकारपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित करने में असफल है । साथ ही नारी भी घर की चहारदीवारी के प्रतिबंध में रह कर