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________________ ४३३ श्रीदेवरचित 'स्याद्वादरत्नाकर' में अन्य अन्यों और अन्यकारो के उल्लेख सर्वदा न च सर्वेषा सन्निघि. सहकारिणाम् । स्वरूपसभिवानेऽपि न पदा कार्यसभव ॥ मन्त्रे सति विषादीना स्वकार्याकरण तु यत् । न शक्ति प्रतिवघात्तत् किन्तु हेत्वन्तरागमात् ॥ मन्त्राभावो हि तद्धेतु धर्मादि सहकारिवत् । मन्त्रभावस्ततस्तत्र हेत्वन्तरतया मत.॥ तेषामम्लानरूपाणा ननु मन्त्रेण किं कृतम् । कार्योदासीनता मात्र शक्ती चैष न य. सम ॥ न हि मन्त्रप्रयोगेण शक्तिस्तत्र विनाश्यते। मन्त्रवादिन्युदासीने पुनस्तत्कार्यदर्शनात् ॥ इति ॥ शक्ति के समालोचक जयन्त पर अपना विचार देते हुए अन्त मे श्रीदेव उदयन की तुलना में जयन्त को हाथी के मुकावले में कीटक जैसा कहता है यत्राल्या शक्ति ससिद्धी मज्जत्युदयनद्विप । जयन्त हन्त का तत्र गणना त्वयि कीटके ॥ यहाँ ग्रन्थ के सम्पादक का कहना है कि ऊपर के लोक, जो जयन्त के 'पल्लव' ने उद्धृत किये गये है, 'न्यायमजरी' (पृ० ४१, विजयनगर मस्करण) में मिलते है। इसी के आधार पर सम्पादक ने 'पल्लव' मे उद्धृत पहले कथन पर अपनी टोका में लिखा है कि श्रीदेव का 'पल्लव' कहने मे मतलव 'न्यायमजरी' से ही था। वास्तव में ऊपर के द्वितीय उद्धरण के श्लोको मे मे केवल पहला 'न्यायमजरो' में मिलता है, न कि उसके वाद के अन्य पाँच श्लोक । अन 'पल्लव' जयन्त द्वारा लिखा हुआ एक भिन्न न्याय का ग्रन्थ है, जो पूर्णतया कारिकामो के रूप मे लिखा गया है और दूसरे उद्वरण में आये हुए पहले श्लोक से मालूम पडता है कि कुछ छन्द 'पल्लव' तथा 'न्यायमजरी' दोनो ग्रन्थो में एक-जैसे ही हो सकते है। पृ० ३३८ में सात श्लोक 'जयन्त' के नाम के साथ उद्धृत किये गये है और ये सभी श्लोक 'न्यायमजरी' (पृ० २१५-१६) में मिलते है। यह एक मार्के की बात है कि यहाँ 'पल्लव' से उद्धरण देने की बात नहीं कही गई है। एक दूसरा ही ऐसा उद्धरण, जो 'जयन्त' के अन्य से पृष्ठ ५४३ पर दिया गया है, 'न्यायमजरी' (पृ० ११७) मे भी मिलता है और यहाँ भी 'पल्लव' का उल्लेख नहीं मिलता। भाग ४, पृ० ७८० में जयन्त तथा उसके 'पल्लव' का कथन जिस श्लोक मे किया गया है वह 'न्यायमजरी' में नहीं मिलतातदुक्त भट्टजयन्तेनापि पल्लवे किञ्चाविच्छिन्नदृष्टीना प्रलयोदयवजित । भावोऽस्खलित सत्ताक चकास्तीत्यामसाक्षिकम् ॥ गुणरत्न की षड्दर्शन समुच्चयवृत्ति (१४०६ ई.) मे जयन्त को 'नयकलिका' का उल्लेख हुआ है, परन्तु उसमें यह कथन कि नयकलिका भासर्वज के न्यायमार पर लिखी हुई टीका है, ठीक नहीं जान पडता। इसके अलावा सतीशचन्द्र विद्याभूपण के ग्रन्थ (History of Indian Logic) मे जयन्त की 'पल्लव' नामक किसी कृति का उल्लेख नहीं है। भाग ३, पृ० ५७६-ज्ञानश्रीमित्र वौद्धनैयायिक (११वी शताब्दी का मध्यभाग)। यहां उसका एक पूरा श्लोक उद्धृत है। पृ०७१२ में एक श्लोक उसके अपोहप्रकरण ग्रन्थ में से पूरा का पूरा दिया हुआ है। भाग ४, ५५
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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