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इतिहास का शिक्षण
प्रो० रसिकलाल छोटालाल पारीक शिक्षण क्रम मे किसी भी विषय पर विचार करते समय इस बात पर ध्यान रखना होता है कि वह विषय विद्यार्थी को क्या मिखलाता है और उसे किस तरह के मनोव्यापार मे अभ्यस्त बनाता है। सिखलाने से अधिक महत्त्व की बात यह है कि वह विद्यार्थी में किस प्रकार के सस्कारो को जन्म देता है। शिक्षण-गास्त्र के इस सिद्धान्त को इतिहाम मे स्वीकार करने पर प्रश्न उठता है कि इतिहास में शिक्षणीय और उमसे किस प्रकार के मानमिक सस्कारो का निर्माण होता है ?
विद्यार्थी वचपन मे ही कहानी सुनता है। अपने शिक्षण-क्रम में भी उसे कथा-कहानी पढनी पड़ती है। उन्हे पढकर उनके कथानक की मत्यता में विद्यार्थी का विश्वास हो जाता है । यदि उसकी निमग्नना में व्याघात करने वाली कोई घटना आ जाती है तो वह अवश्य कुछ सोचने लग जाता है, अन्यथा यदि कथा की परी उमे प्रमन्न करने में मफल होती है तो फिर वह कैमे ही विकट और दुर्गम गढ में क्यो न वद हो, उसका अस्तित्व स्वीकार करने मे विद्यार्थी को आपत्ति नहीं होती। कहने का तात्पर्य यह कि जहां नक भावना की अनुकूलता सुरक्षित रहता है वहां तक मन को विघ्न नही मालूम होता और कथानक को यथार्थता को जांच-पडचाल की अपेक्षा नहीं होती। माहित्य और कलापो का शिक्षण विद्यार्थी मे ऐमी ही मनोवृनि उत्पन्न करता है । इस प्रकार के अभ्यस्त छात्रो को दतिहास की शिक्षा देने के लिए कथा पद्धति का उपयाग किया जाता है। यहां सवाल होता है कि क्या यह पद्धति उपयुक्त है? क्या इम पति से विषय मनोजक ढग मे उपस्थित किया जा सकता है और इतिहास की घटनाएँ मुगमता स हृदयगम कराई जा सकती है ? कुछ लोगो का कहना है कि हाँ, कथाओ के माध्यम द्वारा इतिहास का शिक्षण दिया जा सकता है। श्राखिर गणित की समस्या को भास्कराचार्य 'लीलावती' ग्रन्थ मे सुन्दर श्लोको में उपस्थित करते ही है। क्या इसमे गणित की शिक्षा नही मिलती? इसके विपरीत यह भी कहा जा सकता है कि उन इलोको की हरिणाक्षियो या वराननायो मे लालायित हो कर विद्यार्थी गुत्थियों में भले ही फंस जाय, उनसे बाहर निकलने के लिए तो उसे गणित का ही अभ्यास करना पड़ेगा। यदि हम कथानो के विषय में कह दे कि वे कथा नही, इतिहास है तो ऐसा कहने मात्र में ही क्या वह इतिहास हो जायगा। यदि शिक्षक कहता कि यह तो सत्य घटना है, कल्पिन नही, तो क्या उसका इतना कह देना ही काफी है ? घटना की वास्तविकता और कल्पना का भेद करने वाली उमके पास कमोटो क्या है ? कल्पित कथा और इतिहास को व्यक्त करने वाली कथा का वाहरी रूप इतना समान होता है कि दोनो मे अतर करना कठिन हो जाता है। यह समानता इतनी अधिक होती है कि कथा-पद्धति से इतिहास की शिक्षा देने का परिणाम यह होता है कि वालक अपनी पसन्द की कल्पित कथा को भी सत्य घटना के रूप में समझने ल
लगता है। इतिहास के कथा-कहानी द्वारा शिक्षण देने की यह वडी ही विकट समस्या है। परम्परा मे इतिहास के साहित्य का अनचर होने के कारण यह कठिनाई और भी बढे गई है। इस विषय में वाद-विवाद करते हुए किसी किमी शिक्षक का यह भी मत है कि इतनी रूढिप्रियता रखने से क्या लाभ? ऐतिहासिक कही जानेवाली घटनाओ में भी निश्चितता कहां होती है। कल्पना का व्यापार उनमें भी नो रहता ही है । ऐसी दशा में हम छात्रो की रुचि के लिए इतिहास की कथाप्रो में सिद्धराज और मीनलदेवी का वार्तालाप रक्खें तो उससे आपका क्या बिगडता है ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि इम्स इतिहास विगडता है। यह सच है कि इतिहास के रूप में वर्णित कथानो की घटनाओं में अनिश्चितता होती है, उनमें कल्पना भी होती है, फिर भी इतिहास और कल्पित साहित्य दोनो भिन्न चीजें है। कारण कि वे दोनो भिन्न-भिन्न मनोवृत्तियो के परिणाम है । साहित्य-सर्जक मनोवृत्ति और इतिहास-गोधक मनोवृत्ति दो भिन्न चीजें है । सक्षेप में, शिक्षक को इतिहाम का सम्यक ज्ञान होना चाहिए। उसे यह मालूम होना