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जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन
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निर्बलता को जब समझ जाय तब ही विद्यानन्द अनेकान्तवाद के पक्ष को समर्थित करता है इससे वाचक के मन पर अनेकान्तवाद का औचित्य पूर्णरूप से जँच जाता है ।
विद्यानन्द ने इस युग के अनुरूप प्रमाणशास्त्र के विषय में भी लिखा है । इस विषय मे उनका स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रमाणपरीक्षा है । तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक में भी उन्होने प्रमाणशास्त्रसे सम्बद्ध अनेक विषयो की चर्चा की है। इसके अलावा आप्तपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, युक्त्यनुशासनटीका आदि ग्रन्थ भी विद्यानन्द ने लिखे है । वस्तुत प्रकलक का भाष्यकार विद्यानन्द है ।
अनन्तकीर्ति
इन्ही के समकालीन प्राचार्य अनन्तकीर्ति है । उन्होने सिद्धिविनिश्चय के अाधार से सिद्धयन्त ग्रन्थो की रचना की है । सिद्धिविनिश्चय में सर्वज्ञसिद्धि एक प्रकरण है। मालूम होता है उसीके आधार पर उन्होने लघुसर्वज्ञसिद्धि श्रीर वृहत्सर्वज्ञसिद्ध नामक दो प्रकरण ग्रन्थ बनाये । और सिद्धिविनिश्चय के जीवसिद्धिप्रकरण के आधार पर जीवसिद्धि नामक ग्रन्थ बनाया । जीवसिद्धि उपलब्ध नही । सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार अनन्तवीर्यं द्वारा उल्लिखित अनन्त कीर्ति यही हो तो कोई श्राश्चर्य की बात नही । वादिराज ने भी एक जीव सिद्धि के कर्ता अनन्तकीर्ति का उल्लेख किया है ।
शाकटायन
इसी युग की एक और विशेषता पर भी विद्वानो का ध्यान दिलाना आवश्यक है । जैनदार्शनिक जब वादप्रवीण हुए तब जिस प्रकार उन्होने अन्य दार्शनिको के साथ वादविवाद में उतरना शुरू किया इसी प्रकार जैनसम्प्रदाय गत मतभेदो को लेकर आपस मे भी वादविवाद शुरू कर दिया । परिणामस्वरूप इसी युग में यापनीय शाकटायन ने स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति नामक स्वतन्त्र प्रकरणो की रचना की जिनके आधार पर श्वेताम्बरो और दिगम्बरो के पारस्परिक खडन ने अधिक जोर पकडा । शाकटायन अमोघवर्ष का समकालीन है क्योकि इन्ही की स्मृति में शाकटायन ने अपने व्याकरण की अमोघवृत्ति बनाई है । अमोघवर्ष का राज्यकाल वि० ८७१-९३४ है ।
अनन्तवीर्य
अकलक के सिद्धिविनिश्चय की टीका ग्रनन्तवीर्य ने लिख कर अनेक विद्वानो के लिए कटकाकीर्ण मार्ग को प्रशस्त किया है । प्रभाचन्द्र ने इनका स्मरण किया है । तथा शान्त्याचार्य ने भी इनका उल्लेख किया है । इनके विवरण के अभाव में अकलक के सक्षिप्त और सारगर्भ सूत्रवाक्य का अर्थ समझना ही दुस्तर हो जाता । जो कार्य अष्टशती की टीका प्रष्टसहस्री लिख कर विद्यानन्द ने किया वही कार्य सिद्धिविनिश्चय का विवरण लिख कर अनन्तवीर्य ने किया, इसी भूमिका के बल से प्राचार्य प्रभाचन्द्र का अकलक के ग्रन्थो मे प्रवेश हुआ और न्यायकुमुदचन्द्र जैसा सुप्रसन्न और गम्भीर ग्रन्थ अकलककृत लघीयस्त्र्य की टीकारूप से उपलब्ध हुआ ।
माणिक्यनदी - सिद्धर्षि
अकलक ने जैनप्रमाणशास्त्र - जैनन्यायशास्त्र को पक्की स्वतन्त्रभूमिका पर स्थिर किया यह कहा जा चुका है । माणिक्यनन्दी ने दसवी शताब्दी में अकलक के वाड्मय के आधार पर ही एक 'परीक्षामुख' नामक सूत्रग्रन्थ की रचना की । परीक्षामुख ग्रन्थ जैन न्यायशास्त्र के प्रवेश के लिए अत्यन्त उपयुक्त ग्रन्थ है, इतना ही नही किन्तु उसके वाद होनेवाले कई सूत्रात्मक या अन्य जैन प्रमाण ग्रन्थो के लिए आदर्शरूप भी सिद्ध हुआ है, यह नि सन्देह है ।
सिद्धर्षि ने इसी युग मे न्यायावतार टीका लिख कर सक्षेप में प्रमाणशास्त्र का सरल और मर्मग्राही ग्रन्थ विद्वानो के सामने रखा है । किन्तु इसमें प्रमाणभेदो की व्यवस्था अकलक से भिन्न प्रकार की है। इसमे परोक्ष के मात्र अनुमान और आगम ये दो भेद ही माने गये है ।