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प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ आदि जैन तार्किक
जहां तक मैं जानता हूँ, जैन परम्परा में तर्कविद्या का और तर्कप्रधान सस्कृत वाड्मय का आदि प्रणेता है सिद्धसेन दिवाकर । मैने दिवाकर के जीवन और कार्यों के सम्बन्ध मे अन्यत्र विस्तृत ऊहापोह किया है। यहाँ तो यथासभव सक्षेप में उनके व्यक्तित्व का सोदाहरण परिचय कराना है।
सिद्धसेन का सम्वन्ध उनके जीवन-कथानको के अनुसार उज्जैनी और उसके अधिपति विक्रम के साथ अवश्य रहा है, पर वह विक्रम कौन सा था, यह एक विचारणीय प्रश्न है। अभी तक के निश्चित प्रमाणो से जो सिद्धसेन का समय विक्रम की पचम शताब्दी का उत्तरार्ध और बहुत हुआ तो छठी का कुछ प्रारम्भिक अश जान पडता है, उसे देखते हुए अधिक सभव यह है कि उज्जनी का वह राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय या उसका पौत्र स्कन्दगुप्त होगा, जो कि विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुए थे।
सभी नये-पुराने उल्लेख यही कहते है कि सिद्धसेन जन्म से ब्राह्मण थे। यह कथन विलकुल सत्य जान पडता है, क्योकि उन्होने प्राकृत जैन वाड्मय को सस्कृत मे रुपान्तरित करने का जो विचार निर्भयता से सर्वप्रथम किया वह ब्राह्मण-सुलभ शक्ति और रुचि का ही द्योतक है । उन्होने उस युग में जैन दर्शन तथा दूसरे दर्शनो को लक्ष्य करके जो अत्यन्त चमत्कारपूर्ण संस्कृत पद्यवद्ध कृतियाँ दी है, वह भी जन्मसिद्ध ब्राह्मणत्व को ही द्योतक है । उनकी जो कुछ थोडी-बहुत कृतियाँ प्राप्त है, उनका एक-एक पद और वाक्य उनकी कवित्वविषयक, तर्कविषयक, और समग्न भारतीयदर्शन विषयक तलस्पर्शी पतिभा को व्यक्त करता है।
आदि जैन कवि और आदि जैन स्तुतिकार
हम जव उनका कवित्व देखते है तव अश्वघोष, कालिदास आदि याद आ जाते है। ब्राह्मणधर्म मे प्रतिष्ठित आश्रम व्यवस्था के अनुगामी कालिदास ने विवाह भावना का औचित्य बतलाने के लिए विवाह-कालीन नगरप्रवेश का प्रसङ्ग लेकर उस प्रसङ्ग से हर्षोत्सुक स्त्रियो के अवलोकन-कौतुक का जैसा मार्मिक शब्द-चित्र खीचा है वैसा चित्र अश्वघोप के काव्य मे और सिद्धसेन की स्तुति मे भी है । अन्तर केवल इतना ही है कि अश्वघोप और सिद्धसेन दोनो श्रमणधर्म में प्रतिष्ठित एकमात्र त्यागाश्रम के अनुगामी है । इसलिए उनका वह चित्र वैराग्य और गृहत्याग के साथ मेल खाता है। अत उसमे बुद्ध और महावीर के गृहत्याग से खिन्न और उदास स्त्रियो की शोकजनित चेष्टायो का वर्णन है, न कि हर्षोत्सुक स्त्रियो की चेष्टाओ का । तुलना के लिए नीचे के पद्यो को देखिए
"अपूर्वशोकोपनतक्लमानि नेत्रोदकक्लिनविशेषकाणि । विविक्तशोभान्यबलाननानि विलापदाक्षिण्यपरायणानि ॥ मुग्धोन्मुखाक्षाण्युपदिष्टवाक्यसदिग्धजल्पानि पुर सराणि । बालानि मार्गाचरणक्रियाणि प्रलबवस्त्रान्तविकर्षणानि ॥ अकृत्रिमस्नेहमयप्रदीर्घदीनेक्षणा साश्रुमुखाश्च पौरा। ससारसात्म्यज्ञजनैकवन्धो न भावशुद्ध जगृहुर्मनस्ते ॥"
(सिद्ध० ५-१०, ११, १२) "अतिप्रहर्षादथ शोकमूछिता कुमारसदर्शनलोललोचना । गृहाद्विनिश्चक्रमुराशया स्त्रिय शरत्पयोदादिव विद्युतश्चला ॥
'देखिए भारतीय विद्या, वा० श्री बहादुरसिंहजी सिंघी स्मृतिग्रन्थ पृ० १५२-१५४ । तथा सन्मतितर्कप्रकरण
भाग।