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हिन्दी-गद्य-निर्माण की द्वितीय अवस्या
१२६ "किम्बदन्ती है कि राजा शिवप्रसाद ने कौंसिल की मेम्बरी से इसतीफा दिया था पर लार्ड रिपन ने मंजूर नहीं किया; हम पूरा विश्वास करते हैं कि यह भी गुरुपों की गुरुनाई है समाज में अपना गौरव बनाये रखने को खासकर बनारस के लोगों के बीच राजा ही ने शायद इस अफवाह को उड़ा दिया है नहीं तो लार्ड रिपन साहब को ऐसा क्या मोग है कि राना भागते फिरते और लार्ड रिपन इन्हें धाय २ के पकड़ते। ठौर २ पुतला जलाया गया इस मुलाहिजे से रिपन साहब क्या इन्हें नहीं छोड़ा चाहते या हाँ में हां मिलाने इन्हें बहुत अच्छा आता है इससे इन पर उक्त महोदय बहुत प्रसन्न हैं या कि घर २ और आदिमी २ में इनकी अकोति की कालिमा छा रही इस अनुरोवन से इन्हें रखना ही उचित समझते हैं या कि जन्म पर्यन्त शरिस्ते तालीम रहकर मिवा मियाँगीरी के दूसरे काम के कभी डाँड़े नहीं गए इससे राजनीति का मर्म समझने वालो इस पश्चिमोत्तर और औव में दूसरा कोई पैदा ही नहीं हुआ इमलिए लाचार होइन पर हमारे वायसराय साहब की इन पर वजा आग्रह है नो हो वात निरी वेबुनियाद अफवाह मालूम होती है ।" (पृ० ५-६)
वार्मिक क्षेत्र में वे सुवारो के पक्षपाती थे, पर अकारण ही प्रत्येक प्रया और आचरण का विरोध उन्हें सह्य नहीं था। यो उन्होने जाति-पांति का पन लिया है और कितने ही स्थानो पर यह बताया है कि 'जाति-पाति स्वय किसी उन्नति में वाधक नहीं, फिर भी साथ-साथ भोजन करने का पक्ष पोपित किया है। आर्यसमाज और स्वामी दयानन्द के सिद्धान्तो से वे पूर्णरूपेण सहमत नहीं हो पाये, फिर भी वाल-विवाह, वृद्ध-विवाह का विरोध किया है और स्वामी दयानन्द के व्यक्तित्व के प्रति श्रद्धाजलि अर्पित की है। नई रोगनी को विप के रूप में उन्होंने माना है, पर इसलिए नहीं कि वे भारत की तमोवृत कुरीतियो को बनाये रखना चाहते थे। नई रोशनी की नवसे अविक खटकने वाली वाते उन्हें एक तो भक्ष्य-अभक्ष्य का ध्यान रखना, दूसरे गब्दो में मान-मदिरा का चस्का और दूसरी स्त्री-पुरुषो का स्वेच्छाचार, तीसरी नास्तिकता लगती थी। शोषक वर्ग और गासक वर्ग के प्रति नम्र रहते हुए भी कठोर आलोचना करते, उन पर फब्तियां कसने में 'हिन्दी-प्रदीप' के पृष्ठ चूकते न थे। एक स्थान पर मारवाडी को खटमल कल्पित किया है। वल्लभ-सम्प्रदाय पर छीटा कसने में कभी कसर नहीं छोड़ी। मथुरिया चौवो को भी और तीरथ के पडो को भी क्षमा नहीं किया गया। यद्यपि आस्तिकता और धर्म में विश्वास का पोपण उन्होने वार-बार किया है, पर इनके प्रवल उद्गारो में वे स्थल है जहां उन्होने धर्म-सम्प्रदायो और मजहबो को घोर अप्रगतिगामी बताया है। उन्होंने यद्यपि यह अनुभव किया था कि मुसलमान और सरकार हिन्दुओ पर मव प्रकार से अत्याचार कर रही है, इस मम्बन्ध में ययावसर सटिप्पण घटनाओं का भी उल्लेख करने में कभी कमी नहीं की, फिर भी 'हिन्दी-प्रदीप' प्रवानत हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रवल पोपक रहा है । "हह वही जो राम रच राखा" में उन्होंने स्पष्ट लिखा है
"आगरे में हिन्दू मुसलमानो को आपस में लड़ाई भी वही बात है नहीं तो क्या अव यह होना चाहिए कि सरीहन देख रहे है कि प्रापस की फूट ही ने एक तीसरे को हमारे मानमर्दन के लिए सात समुद्र पार से लाय हमारे ऊपर खड़ा कर दिया चाहिए अव भी साहुत से चल आपस में मेल रक्खें हम दोनो का जो इसी भूनि के उदर से जन्मे हैं एक प्रकार का समुदाय हो जाने से ताकतें और बढे सो न होकर व्यर्थ को मजहवी झगडी के पीछे आपस ही में कटे मरते है यह ईश्वर की इच्छा नहीं तो क्या है ? हमने वहुत दिनो तक इस बेहूदगी के पीछे सिर पचाया और अनेक यत्न किया कि अपने भाइयों को समझाय-बुझाय उन्हें राह लगाएँ आदि
- (नवम्बर १८८३, पृ० ५-६) "हिन्दी-प्रदीप' के पृष्ठो को उलटने से विदित हो जाता है कि उसने सदा न्याय का पक्ष ग्रहण किया है और अनेको मघों में होकर वह गया है, पर अपनी नतुलित लेखनी को कही कलकित नहीं होने दिया है। 'हिन्दी-प्रदीप ने इस प्रकार हिन्दी गद्य को भारतेन्दु से लेकर 'द्विवेदी-युग' तक पहुंचा दिया।
आगरा ]
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