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________________ रासयुग के गुजराती-साहित्य की झलक श्री केशवराम काशीराम शास्त्री विक्रम की पद्रवी सदी के अतिम पचीस वर्षों में गुर्जर भाषा के प्रादि-कवि का गौरव प्राप्त करने का मौभाग्य पानं वाने जूनागढ़ के नागर कवि नरसिंह मेहता ने अपनी ओर मे एक विशिष्ट प्रकार की काव्यवाग प्रवाहित की। उममे पहिले गुजगती भाषा में कुछ भी मादित्य नहीं था, एमा नी नहीं कहा जा सकता। पिछ नीम-पैतीस वर्षा में इम विपर में जो कुछ मगोधन हए है, उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि भारतवर्ष में अन्य महोदरा मापानी के साहित्य का जब तक प्रारम भी न हुआ था, गुजरात में भापा बहुत मम्कार पा चुकी थी। गोर्जर अपनग के मरक्षक आचार्य हेमचद्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में अपना का व्याकरण देते हुए हम जो लोकसाहित्य का परिचय दिया है उसे देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि इस भूमि में विपुन माहित्य का सृजन हो चुका था। मभवन उम ममय वह अम्न-व्यस्त रहा होगा। अपनग माहित्य ती वई पग्मिाण में ग्रया में आ गया था, पर उसम केवल गुजराती भाषा ही प्रयुक्त हुई है,ऐसा कहने के लिए हमारं पाम पर्याप्त प्रमाण नहीं है। वह तो भान्तवर्ष म ग्यारहवी-बारह्वी शताब्दी पर्यत गष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृत मामान्य अपनग के माहित्य का एक अग है, ऐमा कहना अधिक उपयुक्त है। जब मोज के 'मरस्वती कठामग्ण' की रचना हुई तब हम अपने माहिन्य को अमली प म देखने का मौभाग्य प्राप्त हुआ । गुजरात देश की भी अपनी निजी भाषा थी, इस बात के अभी तक प्राप्त प्रमाणो में प्राचीनतम प्रमाण यही ग्रथ है । भोज का "अपनगन तुप्पति वन नान्यंन गुर्जग" (म० क० २.१३) यह मबुर कटाक्ष यहाँ के लोकसाहित्य की अम्पष्ट स्मृति कराता है, यद्यपि भोज के उल्लिम्बित उदाहरणों में हम प्रान्तीय भेद को स्पष्ट करने के लिए कुछ भी नहीं मिलता। इस प्रकार का लाभ ना हम सर्वप्रथम प्राचार्य हमचद्र के द्वारा ही मिला। अपभ्रग का व्याकरण देते हुए प्राचार्य हेमचद्र ने लोक-साहित्य में में चुन-चुन कर अनेक दोहे हमारे लिए एकत्र कर दिये है। सबसे पहिलं उनमे हम इस देश की गमिकता का स्वाद मिलता है। एक प्रभावशाली चित्र देविये वायसु उहावन्तिए पिट दिटुट सहमत्ति । श्रद्धा वलया महिहि गय अद्धा फुट्ट तत्ति ।। (८-४-३५२) विरहिणी मृख कर कांटा हो गई है। विग्ह के कारण वह मगल-मूचक कौवे को उठाने जाती है और उसकी दुबली कलाई में मे प्राधी चूड़ियां निकल पडनी है। इतने में वह अपने प्रियतम को आता देखनी है और इम हपविग में उमका गरी प्रफुल्लित हो जाता है। पानट के उद्रेक मे उसकी दुबली कलाइयां रक्त में इननी भर उठनी है कि शेष त्रुटियाँ कलाई में न ममा मकन के कारण नटातट टूट जाती है। वप्पीहा पिट पिउ भणवि कित्तिउ रुमहि हयास । तुह जनि मह पुणु वल्लहइ बिहु वि न पूरिन श्राम ॥ (८-४-३८३) है पपीहे | तु पिडपिट' चिल्लाने-चिल्लाते हताश हो गया है, किन्तु जल ने तेरी पाया पूरी नहीं की। मेरे प्रियतम ने भी मेरी पाया पूर्ण नहीं की है। 'जब गह-प्रागण में कौवा बोलता है तो उस दिन किसी अतियि के पाने की सभावना की जाती है। गुजरात को इसी मान्यता की और यहां मक्त है-लेखक ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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