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________________ श्रीदेवरचित 'स्याद्वादरत्नाकर' में अन्य ग्रन्थो और ग्रन्थकारो के उल्लेख ४३५ भाग ८, पृ० ३७२ | वाचस्पति मिश्र की न्यायकारिका मे उद्धरण दिया गया है । यह ग्रन्थ मीमासा पर लिखे हुए मडनमिश्र के विधिविवेक (पडितसस्करण) पर टीका है । भाग १, पृ० २३ धर्मकीर्ति लिखित न्यायविनिश्चय । पृ० २१ उपर्युक्त ग्रन्थ पर लिखी हुई टीका तथा वृत्ति नामक दो भाष्य । भाग १, पृ० ४४ उमास्वाति जैन तथा उनका ग्रंथ पचशती प्रकरण यदवाचि पञ्चशती प्रकरण प्रणयन प्रवीण उमास्वाति वाचकमुख्यै - - . तानेवार्थाद्विषत तानेवार्थान् प्रलीयमानस्य । निश्चयतोऽस्यानिष्ट न विद्यते किञ्चिदिष्टवा ॥ इति । पदार्थप्रवेशक ग्रथ । जैसा कि सम्पादक ने लिखा है, यह प्रशस्तपादभाष्य है । पद्मचन्द्रगणि । यह सम्भवत श्रीदेव का प्रधान शिष्य है । प्रकरणचतुर्दशीकार तथा उनका ग्रन्थ धर्मसारप्रकरण । भाग ४, पृ०८७८ भाग ४, पृ० ८०२ भाग ४, पृ० ८६५ प्रकरणचतुर्दशीकारोऽपि धर्मसारप्रकरणे प्राह--न ह्यङ्गनावदनच्छायानुसक्रामातिरेकेणादर्शके तत्प्रतिबिंब संभव इत्यादि । प्रो० वेलकर के ‘जिनरत्नकोश' (भाग १, पृ० १९४ व ) मे किमी सकलकीर्ति द्वारा लिखित धर्मसार ग्रन्थ का उल्लेख है । भाग ३, पृ० ५६० प्रज्ञाकर । दशवी श० के मध्य का वौद्ध नैयायिक, जिसने धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक पर अलकार नामक टीका लिखी है । भाग २, पृ० ४६६ | प्रभाचद्र, जैन तार्किक (८२५ ई०) जिसने तत्त्वार्थसूत्र पर एक टीका लिखी है । यहाँ दिया हुआ उद्धरण उसी टीका से है । भाग २, पृ० ४७८ प्रमेयकमलमार्तण्ड । यह माणिक्यनन्दिन् के परीक्षामुखसूत्र पर लिखी हुई प्रभाचन्द्र की टीका है । यह उस समय लिखी गई थी जब भोज धारा मे राज्य कर रहे थे । भाग २, पृ० ३२०, ३४५ प्रशस्तपादभाष्य --- प्रशस्तपाद का पदार्थ वर्मंसग्रह ( वैशेषिक ग्रन्थ) । भाग ४, पृ० ९२० पर लेखक का नाम प्रशस्तकर दिया हुआ है । भाग १, पृ० ८६, भाग ३, पृ० ६४८-४९, ६५४ यहाँ भर्तृहरि का हवाला कही तो उसके नाम के सहित दिया हुआ है और कही उसका नाम नही दिया है । भाग २, पृ० ३२२, भाग ४, पृ० ८५२ भूषण । यह भासर्वज्ञ का न्यायभूषण है, जिसका उल्लेख बहुत से अन्य ग्रन्थो मे भी आया है, परन्तु जो अभी तक प्राप्त नही हो सका । गुणरत्न की षड्वृत्तिदर्शन, राजशेखर सूरि के षड्दर्शनसमुच्चय तथा न्यायसार पर भट्ट राघव की टोका आदि जैन ग्रन्थो मे लिखा है कि भूपण, न्यायसार पर ग्रन्थकार द्वारा स्वय लिखी हुई टीका है । भाग ३, पृ० ५६६ मुनिचन्द्रसूरि (मृत्य् ११२१ ई० ) । श्रीदेव ने अपने ग्रन्थ मे अनेक स्थानो पर अपने गुरु मुनिचन्द्र का जिक्र किया है । प्रम अध्याय के अन्त में हरिभद्र रचित ललितविस्तार पर मुनिचन्द्र की टीका का कथन है । ललितविस्तार चैत्यवन्दनासूत्र (प्रका० देवचन्द्र लालभाई पुस्तकोद्धार फड मीरीज ) पर भाष्य है । अध्याय दो के अन्त में शिवगर्मन् के कर्मप्रकृतिप्राभृत पर मुनिचन्द्रमूरि द्वारा लिखी हुई टीका का जिक्र है । पाँचवे अध्याय के अन्त मे श्रीदेव ने शास्त्रवातमिमुच्चय पर मुनिचन्द्र की टीका का उल्लेख किया है । प्रो० वेलकर के ‘जिनरत्नकोश' (भाग १ ) मे इस टीका का नाम नही है और न वह मुनिचन्द्रलिखित ३२ ग्रन्यो की
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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