________________
७२८
प्रेमी-अभिनंदन अर्थ'. मित्र समझते है और अपनी ओर से सदा बन्धुत्व की ही उपहार उसे देते हैं-वह चाहे उसे ग्रहण करे, चाहें हरायो। इस विषय मे अनासक्ति ही गाधी जी का नियम है । भगवान् कृष्ण के इस वर्जन में उनकी श्रद्धा कभी डिंगी नहीं। "न हि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गति तान गच्छति अर्थात् जो कुछ भी कल्याण-भावना से किया जाता है, वह कभी, दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। और कल्याण-भावना तो गांधी जी के रोम-रोम में रमी है। '' " --
अपने जीवन के ये पिछले चालीस वर्ष गाधी जी ने अखड ब्रह्मचर्य के साथ विताये है। उनके ब्रह्मचर्य में जडता, प्रमाद, स्वार्थ, सकुचितता, महमन्यता और कट्टर धर्मान्धता को कोई स्थान नहीं। यो दुनिया में जे. नामधारी ब्रह्मचारियो की कमी नही है। सभी देशो में, सभी खडो में, वे पाये जाते है, पर उनमें गांधी जी-सी प्रतापी, प्रखर व्रतधारी, निरन्तर विकासमान ब्रह्मचारी आज कहाँ है ? और गाधी जी का यह ब्रह्मचेयं भी किसको समर्पित है ? जनता-जनार्दन को, दरिद्रनारायण को, विश्व की दुर्बल, दलित मानवता को उसी को ऊपर उठाने, उसीको सुखी बनाने के लिए ब्रह्मचारी गाधी आज सौ नहीं, सवा सौ वर्ष जीना चाहता है। पिछले पचास वर्षों की तीव्र और उग्र तपस्या ने यद्यपि शरीर को जर्जर बना दिया है, फिर भी गाधी जी जीवन से निराश नहीं, जीवन के संघर्षों से हताश नहीं। जीवन उनको माज भी कमनीय मालूम होता है। वे उससे उकताये नही, ऊबे नहीं। जैसे-जैसे वे उमर में बढते जाते है, जीवन का मर्म उनके सामने खुलता जाता है और वे जीवन के अलौकिक उपासकवनते जाते है । यो हमारे देश में और दुनिया में १००, १२५, १५० साल की लम्बी उमर पाने वाले स्त्री-पुरुष, दुर्लभ नहीं है। पर उनमें और गाधी जी में एक मौलिक भेद है । गाधी जी ने अपने लिए जीना छोड दिया है। वे आज विश्व-मानव की कोटि को पहुंचे है, विश्व के गुरुपद को प्राप्त हुए है, सो यो ही नही हो गये। विश्व के लिए जीना ही उनके जीवन की एकमात्र साध रही है और इसीलिए मानव-जीवन में उन्होने नये अर्थों और नई भावनात्रों के साथ ब्रह्मचर्य को प्रतिष्ठित किया है। उनकी व्याख्या का ब्रह्मचारी साधारण कोटि का मानव नही रह सकता। उसे तो निरन्तर उन्नत होना है और मानव-विकास की चरमसीमा तक पहुंचना है।
पराधीन भारत के लिए उसका ब्रह्मचर्य, उसका सत्य, सत्य के लिए उसकी चर्या, सव कुछ स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रयत्नो में समा जाता है। आज तो स्वतन्त्रता ही उसकी आराधना का एकमात्र लक्ष्य हो सकता है। स्वतन्त्रता - रूपी सत्य का साक्षात्कार किये बिना वह परम सत्य की शोध में एक डग मी मागे नहीं बढ़ सकता । यही कारण है कि . गाधीजी-जैसो को आज देश की स्वतन्त्रता के महान यज्ञ का अध्वर्यु वनना पड़ा है। उनके जीवन का यह एक दर्शन है। अनुभव से उन्होने इसे जाना-माना है कि जब तक मनुष्य अपने तई स्वतन्त्र नही, वह सत्य की सम्पूर्ण साधना कर ही नहीं सकता। जिसके चारो ओर बन्धनो का जाल विछा है, जो अपने आप में जकडा पडा है, जिसे न हिलनेडुलने की स्वतन्त्रता है, न बोलने-बतलाने की, जिसके कदम-कदम पर रुकावटो के पहाड अडे है, वह सत्य की शोध में कैसे लीन होगा? कैसे उसे सत्य के दर्शन हो सकेंगे? और बाहर के वन्वनो के साथ-साथ अपने अन्दर के बन्धनो से भी तो मुक्ति पाना आवश्यक है। दोनों स्वतन्त्रताएं साथ-साथ चलनी चाहिए, अन्यथा काम बन ही नहीं सकता, शोध पूरी हो ही नहीं सकती। यो कहने को आज दुनिया में कई देश हैं, जो स्वतन्त्र कहे जाते हैं,वाहर की कोई सत्ता उन पर हावी नही, फिर भी वे सच्चे अर्थों में स्वतन्त्र तो नहीं हैं, उनकी आत्मा अनेक वन्धनो से जकडी हुई है,. विकारा से ग्रस्त है। स्वार्थ उनका आसुरी बन गया है और महत्त्वाकाक्षानो ने हद छोड दी है। वे आज ससार के लिए अभिशाप बन गये हैं। उनकी वह तथाकथित स्वतन्त्रता ससार के लिए तारक नही, मारक बन रही है। यह स्वतन्त्रता का बडा कुत्सित रूप है, भयावना और घिनौना। हमें इससे बचना है। इस मृगजल से सावधान , रहना है और इसका एक ही उपाय है कि हम अन्तर्बाह्य स्वतन्त्रता की सच्चे दिल से उपासना करें। एक-दो की इक्की-दुक्की उपासना से सारे विश्व की इस विभीषिका का अन्त नहीं हो सकता। करोडो को एक साथ सामूहिक रूप से ऊपर उठना होगा और निर्मल स्वतन्त्रता की उपासना में लगना पडगा। यह कैसे हो? जीवन में स्वार्थ को गौण और परमार्थ को प्रधान पद देने से ही इसका रास्ता खुल सकता है। छोटे-बडे, 'अमीरवारीव,