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वे मधुर क्षण!
श्री नरेन्द्र जैन एम० ए० श्रद्धेय प्रेमीजी का नाम तो बहुत दिनो से सुना था, लेकिन साक्षात्कार हुआ उस समय, जव मै कॉलेज की अध्यापकी पाने की आशा में वम्बई गया। घर पर पहुंचा तो प्रेमीजी भोजन कर रहे थे। उन्हें देखकर मुझे ऐसा मालूम हुआ कि दुर्दैव के प्रहारो से वे झुक अवश्य गये है, पर उसे चुनौती देने की क्षमता मानो अव भी उनमे शेप है। रुग्णा पुत्रवधू अस्पताल मे थी। इससे कुछ चिन्तित थे। मैंने उन्हे नारियल की तरह पाया। ऊपर से कठोर, पर अन्तर में कोमल।
प्रेमीजी की सहायता से नौकरी प्राप्त हो जाने पर फिर तो अनेकों बार उनसे भेट और वातचीत करने का अवसर मिला और अब भी मिलता रहता है। जी नही लगता तो प्राय उनके पास चला जाता हूँ। उनके छोटे-से परिवार के कई मधुर चित्र मेरे सामने है । एक दिन जस्सू (पौत्र) अपनी कितावो का वस्ता ट्राम मे भूल पाया। मैंने कहा कि चलो, छुट्टी हुई। लेकिन जस्सू बहुत सुस्त था। आंखो में आंसू झलकने लगे। दादा (प्रेमीजी) उसकी व्यथा को ताड गये। बोले, “बेटा, तू क्या फिकर करता है । अरे, दुकान तो तेरी ही है । तेरे लिए एक-एक छोड दो-दो किनावे अभी मँगाये देता हूँ।" यह आश्वासन पाकर जस्सू उछलने लगा।।
एक रोज़ बोले, "अरे वेटा चम्पा,'बच्चे वारिश मे भीगते जाते है। उनके लिए एक-एक वरसाती खरीद दे।" चम्पा बोली, “दादा, इनके पास छतरी है तो। फिर वरसाती की क्या जरूरत है ?"
"लो भई वेटा पस्सू, कही वारिश छतरी से भी रुकती है । यह मां कैसी बाते करती है ?" प्रेमीजी ने हंसते हुए कहा।
पस्सू खिलखिला पडा। वोला, “हाँ, दादा, देखो, मां कितनी मक्खीचूस है।" कहने की आवश्यकता नहीं कि शीघ्र ही दो वढिया वरमाती आ गई। यो ही बैठे हुए एक दिन मैंने पूछा, “यह रेडियो कितने में खरीदा था ?" वोले, "पता नही। सब वही (हेमचन्द्र) लाया था। हमने तो यह शास्त्र पढा ही नहीं।"
अपने व्यवसाय में प्रेमीजी जितने सजग और कुशल है, घर-गृहस्थी की चीजो के बारे में उतने ही अनभिज्ञ । चीज़ों का मोल-तोल करना उनसे आता ही नहीं।
एक दिन जस्सू विक्री के पांच रुपये वारह पाने हाथ मे खनखनाता उछलता हुआ पाया ।-"मेरा बटुआ कहाँ है ? बटुआ कहाँ है ?" उसने हल्ला मचा दिया ।
प्रेमीजी बोले, "वडा दुकानदार वना है | अरे, रोटी तो खा ले, वेटे | मुझे क्यो सताता है ?"
पर जस्सू सुनने वाला आसामी नही। "प्रेमीजी फिर चिल्लाए, “वेटा चम्पा, इसके कान तो पकड । रोटी नही खाता।"
जस्सू अपनी धुन मे मस्त रहा और जब पैसे बटुए मे भर लिये नव रोटी खाने बैठा। थाली पाते ही लगा चिल्लाने, “चावल लायो, चावल ।"
प्रेमीजी ने हंसते हुए कहा, "अरे, यह क्या होटल है। वाह, बेटा वाह, मेरे घर को तोनुने होटलहीवनादिया।" हम सब खिलखिला कर हँस पडे।
'पुत्रवधू।
पौत्र।