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प्रेमीजी के व्यक्तित्व की एक झलक
४१ मांग हुई और एकाविक सस्करण भी हुए। तब लेखक महाशय की नीयत में फितूर आया और उन्होने प्रेमीजी से
और ऐंठने का वाँधनू वावा । प्रेमीजी थे सच्चे और खरे आदमी। उन्होने यह मामला पचायत में डाल दिया। सर्वश्री डा० भगवानदास, स्व० शिवप्रसाद गुप्त, श्रीप्रकाश, रामचन्द्र वर्मा और मैं, उसके सदस्य थे। पचायत ने कदमकदम पर पाया कि लेखक महाशय ने जिस रूप में मामला खडा किया था, उसमें उनकी जबरदस्ती ही नही, बहुत वडी जघन्यता भी थी। सच बात तो यह है कि उन्होने जो हरकत की थी उसके लिए उलटे प्रेमीजी को हरजाना मिलना चाहिए था, किन्तु उन दिनो लेखक महाशय ने राष्ट्रीय वाना धारण कर लिया था। अतएव वे कुछ पचो की निगाह में कोई चीज हो गये थे। निदान, 'दयापूर्ण' फैसला यह हुआ कि यद्यपि उन्होने काम तो अनुचित किया है फिर भी उन्हें प्रेमीजी अमुक रकम प्रदान करें। प्रेमीजी ने तत्काल विना किसी ननुनच के इस 'न्याव' की तामील कर दी। लेखक महागय को प्रेमीजी से लिखित क्षमा मांगने की आज्ञा भी हुई थी। सो मानों उक्त रकम उसी क्षमा प्रार्थना की फीस चुकवाई गई थी। प्रेमीजी आरम्भ से ही निलिप्त रहे । वे तो घरमोधरम यहाँ तक तैयार थे कि कापीराइट तथा छपी प्रतियां लेखक महाशय को यो ही दे दें। उन्होने न कभी लाछित करने वाले कर्म किये थे, न करना चाहते थे। यही उनका जीवन-व्रत है, जिस पर वे आज भी समारूढ है।
इस घटना में मैंने दो वातें पाई। पहली तो प्रेमीजी के निखरे हुए व्यक्तित्व की एक झलक और दूसरे यह कि .गोसाई जी की ये पक्तियां मवासोलह आने सच है
"लखि सुवेष जग बचक जेक । वेष प्रताप पूजिहि तेऊ ॥" बनारस ]]