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प्रेमी-अभिनदन-प्रय भी बहुत कम मिलेंगे। एक उदाहरण उनकी उत्तम रचना का यो है। काव्य की महत्ता बतलाते हुए ज्ञानेश्वर कहते है कि 'वह उस पानी के समान है, जो एक ओर तो आँख की पुतली तक को नही दुखाता और दूसरी ओर कठिन चट्टानो को भी तोडता हुमा वन्यारूप बहता है।' ज्ञानेश्वरी के साथ ही 'अमृतानुभव' तथा कुछ स्फुट अभग (पद) भी ज्ञानेश्वर ने लिखे । ज्ञानेश्वरी का हिन्दी और अग्रेजी अनुवाद अब हो गया है।
ज्ञानेश्वर के समय में कई अन्य सन्त-कवि हुए। उनमें से अधिकाश ने तीर्थयात्रा के निमित्त भारत-भ्रमण किया और हिन्दी-पद्य मे भी रचनाएँ की। उनमें कई हरिजन कवि भी थे। यथा नामदेव दर्जी और उसकी दासी जनावाई, गोरा कुम्हार, सावता माली, विसोबा खेचर, नरहरी सुनार, वका महार, चोखा मेला, परमा भागवत, कान्होपात्रा (पतुरिया), सेना नाई, सजन कसाई इत्यादि । वारकरी सम्प्रदाय के प्रमुख प्राराध्य पढरपुर के पढरीनाथ थे। इस सम्प्रदाय मे भक्ति गुण प्रधान था। जातिभेद को कोई अवसर नहीं दिया जाता था। इस सन्तमालिका में साहित्य के इतिहास की दृष्टि से प्रमुख है नामदेव (१२७०-१३५० ईस्वी) और एकनाथ (१५३३-१५६६ ईस्वी)। नामदेव की रचना मुख्यत पदो के रूप में थी, सूर के समान । एकनाथ ने भागवत, भावार्थ रामायण, रुक्मिणी स्वयवर आदि ग्रन्थ लिखे हैं। इन दो कवियो के बीच एक-दो शतको में जो प्रमुख घटना हुई, वह थी मुसलमानो का दक्षिण मे प्रवेश । ये सव-के-सव हिन्दू-धर्म, मराठी सन्त और भाषा पर अत्याचार करने वाले नही थे। वहमनी राज्य के कुछ वादशाह और कुछ सुल्तान मराठी-प्रेमी थे। कई तो सन्तो के शिष्य भी बने। १५५५ ईस्वी मे इब्राहिम आदिलशाह ने वीजापूर दरवार में मराठी भाषा प्रचलित की, परन्तु ऐसे राजा थोडे थे। दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना थो चौदहवी-पन्द्रहवी शती में नृसिंह सरस्वती और जनार्दनस्वामी नामक दो साधुनो द्वारा 'दत्त' सम्प्रदाय का प्रचलन । गगाधर सरस्वती नामक उपरोक्त साधुओ के एक शिष्य का लिखा हुआ 'गुरुचरित्र' ग्रन्थ महाराष्ट्र में अत्यधिक लोकप्रिय हुआ और अभी भी वडे-बूढो को वह कठस्थ है। पुराने घरो में उसका नित्य पाठ होता है।
ज्ञानेश्वरी के बाद प्राचीन मराठी साहित्य मे एकनाथ की भागवत की टीका वद्य और साहित्यिक गुणो में समतुल्य मानी जाती है। भागवती टीका में एकनाथ की एक बडी विशेषता थी सस्कृत मे मात्र मुट्ठीभर पडितो के लिए उपलब्ध वस्तु को जनता की, सर्वसाधारण की, लोकानुरजिनी और लोकोपयोगी वस्तु बनाना । 'सस्कृत वद्य, प्राकृत निंद्य । हे बोल काय होती शुद्ध ।' यह एकनाथ 'का वचन का भाषा का सस्किरित' वाली प्रसिद्ध उक्ति की याद दिलाता है। ज्ञानेश्वर की रचना में आभिजात्य (क्लासिकल) था, एकनाथ की रचना अधिक प्रासादिक और सर्वप्रिय हुई। ज्ञानेश्वर कई स्थलो पर कठिन और रहस्यवादी है, एकनाथ तुलसीदास की भांति अर्थसुलभ, साधारणीकरण-युक्त तथा अपनी सरलता से अलकृत है। एकनाथ की परम्परा को नाथ-परम्परा कहते है, जिसमें मुख्य कवि हुए-दासोपन्त, (१५५१-१६१५ ईस्वी), व्यवकराज (१५८० ईस्वी के निकट), शिवकल्याण (१५६८-१६३८१), रमावल्लभदास आदि । दासोपन्त ने ४६ ग्रन्थ और सवा लाख 'ओवियाँ' (छन्दविशेष) लिखी। ज्ञानेश्वर पचायतन मे ज्ञानेश्वर चार भाई-बहन और नामदेव आते थे, वैसे ही एकनाथ पचायतन में, एकनाथ, दासोपन्त, रामजनार्दन, जनीजनार्दन और विठारेणुकानन्दन नामक कवि आते है। ज्यवकराज का वालवोध अन्य वेदान्त पर और प्रोकारोपासना से सम्बद्ध है। शिवकल्याण ने नित्यानन्दक्यदीपिका, रासपचाध्यायी, ब्रह्मस्तुति, वेदस्तुति नामक ग्रन्थ लिखे है । रमावल्लभदास की गीता की 'चमत्कारी टीका' प्रसिद्ध है।
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मध्यकाल का साहित्य प्राचीन साहित्यिक परम्परा की अन्तिम शृखला के रूप में हम मुक्तेश्वर का स्मरण कर सकते है । निश्चित रूप से इनके जीवनचरित के विषय मे सामग्री नही मिलती, फिर भी अनुमान है कि आप एकनाथ के भाजे होगे।