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दो महान संस्कृतियो का समन्वय
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नहीं थी। मध्य एशिया में उनके लिए कोई स्थान नहीं रह गया था। यहां की उस समय की राजनैतिक दुरवस्या का लाभ उठाकर वे लोग यहां बस रहना चाहते थे। इन विजेताओं में न तो इम्लाम को समझने की शक्ति थी, न उसे फैलाने का जोग । स्वभावत ही उनके साथ इस्लाम जिम रूप में हिन्दुस्तान में आया, वह उसके उम रूप से बहुत भिन्न था, जो दक्षिण भारत के रहने वालो ने-अरव व्यापारियो के विश्वास में देखा था। इस्लाम का यह रूप हज़रत महम्मद माहिव के शिक्षण और प्रारम्भिक खलीफाओ के जीवन मे विलकुल भिन्न था-दोनो के बीच कई शताब्दियां का अन्तर था-शताब्दियां जिन्होने इस्लाम के इतिहास में कई उतार-चढाव देखे थे, उमय्यद-काल की प्रचडना और अब्बासी-काल का वैभव, मभ्य ईरान की वार्मिक कट्टरना और वर्वर मगोलो की पाशविक रक्त-पिपासा।
यही कारण था कि उत्तरी भारत में हिन्दू और मुस्लिम सस्कृतियां एक माय, विना किमी व्यवधान के, बहुत निकट सम्पर्क में नया मकी। हिन्दू, राजनैतिक मगठन की कमी के कारण मुसलमानों की विजय के पथ में तो कोई वडी रुकावटें खडी नहीं कर सके, पर उनकी वर्वरता और धार्मिक असहिष्णुता मे खीझ कर उन्होंने अपने धार्मिक
और मामाजिक जीवन के चारों ओर एक मजबूत किलेबन्दी कर ली। मुमलमान देश को जीत सकते थे, पर उमके निवासियों के मामाजिक जीवन में उनका प्रवेश विलकुल निपिद्ध था। वह हमारे खान-पान और विवाह-सम्बन्वो मे वहिप्कृत थे। यह पहला मौका था जव हिन्दू समाज ने अपने चारो ओर निषेध की इतनी मजबूत दीवारें बडी कर ली थीं। इसके पहले सदा ही वाहर वालो के लिए उनके द्वार खुले रहा करते थे। दूसरी ओर भी यह पहला ही अवमर था जव मुमलमानो ने किसी देश पर विजय प्राप्त की थी, पर वे उसके मामाजिक जीवन में इस प्रकार अलहदा फेंक दिये गये थे। कुछ ऐतिहामिक परिस्थितियों ने, जो बहुत कम दिन टिक सकी, सामाजिक असहयोग की इस भावना को मजबूत बनाया । मुसलमान बहुत थोडी मख्या में इस देश में आये थे। थोडे ही दिनो में वह अांधी की तरह चारो ओर फैल गये थे और महासागर में दूर-दूर फैले हुए द्वीपो के ममान उन्होने अपने छोटे-छोटे राज्य खडे कर लिये थे। जनता के मगठित तिरस्कार के सामने उनके लिए भी यह जरूरी हो गया कि वे मुस्लिम समाज के सभी तत्त्वो और विवाह-सम्बन्वो से उन्हें वहिप्कृत
त्तीऔर विवाह-सम्बन्वो से उन्हे वहिप्कृत करें। यह पहला मौका था जव हिन्द-समाज ने अपने चारोमोर नामाजिक वहिष्कार की इननी मजबूत शृखलाएं गढना आरम्भ की। इसके पहले सदा ही बाहर वालो के लिए उनके द्वार खुले रहा करते थे। दूसरी ओर भी, यह पहलाही अवसर था, जब मुसलमान किमी देश में घुस तो पडे, पर उसके मामाजिक जीवन में लेग-मात्र भी प्रभाव न डाल सके। कुछ ऐतिहासिक परिस्थितियो ने इस सामाजिक भावना को दृढ वनाया। मुसलमान आंवी की तरह समस्त उत्तरी हिन्दुस्तान में फैल तो गये थे, पर मख्या की दृष्टि अमहयोग की से उनकी स्थिति ऐमीही थी जैमे कि एक महासागर में फैले हुए छोटे-छोटे द्वीपो की होती है। इसलिए हिन्दुनो के सामाजिक वहिप्कार के सामने, उनके लिए भी यह जरूरी हुआ कि वह अपना सगठन मजबूत बनाएँ। इमी कारण हम मुस्लिम समाज के कई तत्त्वो, गासक वर्ग, वार्मिक नेतागो और मुस्लिम मतानुयायियो को एक दूसरे के बहुत निकट सम्पर्क में आते हुए पाते है।
पर यह स्थिति अप्राकृतिक थी और अधिक दिनो तक टिक नहीं सकती थी। दो जीवित, जाग्रत, उन्नतिशील समाज इतना नज़दीक रहकर एक दूसरे के सम्पर्क मे अपने को बचा नहीं सकते थे। इसी कारण हम देखते है कि इल्तुनमिग ने मुसलमानो के आन्तरिक मगठन की जिम नीति की नीव डाली थी और जिसके प्रावार पर ही वह उत्तरी भारत में मुस्लिम-माम्राज्य की स्थापना कर सका था, वह उसकी मृत्यु के बाद कुछ दिनो भी टिक न सकी। वलवन ने उसकी उपेक्षा की, अलाउद्दीन खिलजी ने धर्म और राजनीति के भेद को अधिक स्पष्ट किया और मुहम्मद तुग़लक ने एक विरोवी नोति को विकाम की चरम-मीमा तक पहुंचा दिया। इस मकुचित नीति के टूट जाने का कारण स्पष्ट या। मुमलमान-विजेताओं के माथ-माथ, उनके पीछे-पीछे, कमी उनके पाश्रय में और कभी स्वाधीन रूप से, मुसलमान वर्म-प्रचारको को एक अनवरत शृखला भी इस देश में दाखिल होती रही। आज जो हम अपने देश की आवादी का चतुर्याश इस्लाम के अनुयायियों को पाते है, उसका कारण इन प्रचारको का प्रयत्न है, न कि मुसलमान शासको की