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हिन्दी-गद्य-निर्माण की द्वितीय अवस्था
१२३ हिन्दी थी। उन्होने कोई नई भाषा गढी नही थी। उन्होने यह दिशा-दर्शन किया कि सभी ने उसे स्वीकार कर लिया। उस भाषा का सबसे अधिक स्वाभाविक रूप प० प्रतापनारायण मिश्र मे मिलता है, अथवा प० बालकृष्ण भट्ट मे । प० बालकृष्ण भट्ट ने 'हिन्दी प्रदीप' का सम्पादन १८७८ सन् से करना प्रारम्भ किया था। इस समय भारतेन्दु जी जीवित थे। सर सैयद अहमदखां और स्वामी दयानन्द भी जीवित थे। ये सभी महानुभाव प० बालकृष्ण भट्ट के साहित्य-सेवा-काल में इह-लीला समाप्त कर गये । युग पलट गया। १६०० सन् मे 'सरस्वती' का प्रकाशन हुआ। शीघ्र ही 'द्विवेदीयुग' का प्रारम्भ होना प्रारम्भ हुआ। प० वालकृष्ण भट्ट का 'हिन्दीप्रदीप' भारतेन्दु काल और द्विवेदी काल की शृखला के बीच की कडी है।
भाषा की दृष्टि से हमें स्पष्ट ही १८७८ या ७९ के अको की अपेक्षा १९०६-७-८ के अको मे बहुत अन्तर प्रतीत , होता है। सितम्बर १८७८ के 'प्रदीप' मे हमें प्राय यह भाषा मिलती है
१. "हम लोगो का मुंह बन्द करने वाला प्रेस ऐक्ट के मुताबिले में जो लडाई लड़ी गई उसमें सुर्खरू हो फतहमाबी कामुख देखना यद्यपि हमें मयस्सर न हुआ पर एतने से हमें शिकस्तह दिल न होना चाहिए
हम निश्चयपूर्वक कह सकते है कि यह पहिला हमारा प्रयास सर्वथा निष्फल नहीं हुआ क्योकि इसमें अनेक कार्यसिद्धि के चिह्न देख पडते है" (पृ० २, अक १) इसी काल में ऐसे भी वाक्य मिलेंगे
२ "ऐसी उदार गवर्नमेण्ट जो अपने को प्रसिद्ध किये है कि हम न्याय का बाना बाँधे है वही जब अन्याय करने पर कमर कस लिया"
इनके अध्ययन से कुछ वातें स्पष्ट प्रकट होती है। इस काल का लेखक विराम चिह्नो से अपरिचित है। उसकी रचनाओ मे एक साथ ही हिन्दी की दोनो शैलियो का सयोजन मिलता है । अवतरण का पूर्वार्द्ध जिस शैली मे है, उसका ही पराद्धं दूसरी शैली में है। कुछ शब्दो का उच्चारण अद्भुत है। वाक्य मे व्याकरण का कोई स्थिर नियम काम मे नही लाया गया। मुहाविरो की ओर जहाँ आकर्पण है, वहाँ भाषा में ढिलाई मिलती है। जहाँ मुहाविरो की ओर आकर्षण नही, वहाँ चुस्ती है । अव १६०८ के फरवरी अक में से एक उद्धरण लीजिए। तीस वर्ष वाद का
"अस्तु अव यहां पर विचार यह है कि वह अपने मन से कोई काम न कर गुजरे जब तक सब की राय न ले ले और सबो का मन न टटोल ले। दूसरे उसमें शान्ति और गमखोरी की बड़ी जरूरत है । जिस काम के बनने पर उसका लक्ष्य है उस पर नजर भिडाये रहें दल में कुछ लोग ऐसे है जो उसके लक्ष्य के बडे विरोधी है, और वे हर तरह पर उस काम को बिगाडा चाहते है। अगुना को ऐसी २ बात कहेंगे और खार दिलायेंगे कि वह उधर से मुंह मोड बैठे और क्रोध में प्राप सर्वथा निरस्त हो जाय।" (पृ० ८) .
ऊपर के उद्धरणो से तुलना करने पर अन्तर स्पष्ट हो जाता है। भाषा वह रूप ग्रहण करने लगी है, जिसमें विशेष सुरुचि और परिमार्जन का पुट लगा देने से वह 'द्विवेदी-काल' की वन जाय। यथार्थता इस समय से द्विवेदीकाल को प्रारम्भ होने के लिए केवल दस-पन्द्रह वर्ष ही रह गये थे।
'हिन्दी-प्रदीप' ही वह अकेला पत्र है, जो भारतेन्दु के समय से लेकर द्विवेदी-काल तक आया और जो आदि से अन्त तक एक व्यक्ति की रीति-नीति, शासन तथा सम्पादन मे चला। १९०८ में यह डेढ वर्ष के लिए बन्द हो गया था। पुन प्रकाशन पर भट्ट जी ने यह टिप्पणी दी थी
“सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान सच्चिदानन्द परमात्मा को कोटिश धन्यवाद है कि विघ्न बाहुल्य को