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प्रेमी-प्रभिनदन- प्रथ
पार कर प्रदीप दीपमालिका की दीपावली के साथ प्राज फिर जगमगा उठा प्यारे पाठक ! आपसे विधुर इस डेढ़ वर्ष की अपनी ऊँची-नीची दशा की कहानी सुनाय हम आपके प्रेमपरिप्लुत चित्त को नहीं दुखाया चाहते। बस इतने ही से श्राप हमारे निकृष्ट जीवनयात्रा की टटोल कर सकते हैं कि देशसेवा मातृभूमि तथा मातृभाषा का प्रेम बडी कठिन तपस्या है ।" (जिल्द ३१, स० १, पृ० १-२ )
इसमें सन्देह नही कि इसकी यह दीर्घ आयु प० बालकृष्ण भट्ट की सम्पादन -कुशलता के कारण थी। साथ ही उनकी कष्ट-सहिष्णु और धीर-प्रवृत्ति भी इसमें सहायक थी, क्योकि ग्राहको की 'नादेहन्दगी' का रोना 'ब्राह्मण' पत्र की भाँति 'हिन्दी-प्रदीप' को भी रोना पडता रहा । फिर भी यह पत्र खूब चला, ऐसा कि जैसा उस काल का कोई दूसरा पत्र न चला।
जव हम उन कारणो पर विचार करते है, जिनसे 'हिन्दी- प्रदीप' इतनी सेवा करने में सफल हो सका तो अन्य कारणो के साथ उसकी भाषा पर दृष्टि जाती है। उन्होने अपनी भाषा को उस समय के दो वर्गों के मध्य की भाषा रक्खा। एक नागरिक - शिष्ट --- पढा लिखा वर्ग था, दूसरा ग्रामीण - साधारण -- जिसे पढे-लिखे होने का गर्व नही था, यो पढा लिखा साधारणत वह भी था । शिष्ट वर्ग या तो संस्कृत का पड़ित था, या फारसी-उर्दू का कामिल । जैसा ऊपर दिये गये उदाहरणो से विदित होता है, इन्होने 'हिन्दी- प्रदीप' मे आवश्यकतानुसार दोनो वर्गों की भाषाशैलियों को अपनाया । फिर भी इनकी तथा भारतेन्दु जी की भाषा मे कोई विशेष अन्तर नही था । ये उसी हिन्दी का उपयोग कर रहे थे, जिसे भारतेन्दु जी ने नये रूप में ढाला था और जिसका इन्हें पूरा ज्ञान था । इन्होने एक बार नहीं, कई वार 'हिन्दी' भाषा के सम्बन्ध मे और उसकी दशा के सम्बन्ध मे टिप्पणियां लिखी है । इस समस्त चैतन्य के अतिरिक्त भी वे कभी अनुदार नही हुए । उनकी भाषा यथार्थत सार्वजनीन भाषा विदित होती है, जिसमे किसी भी प्रकार के शब्दो के लिए हिचकिचाहट या सकोच नही । उन्होने अप्रैल, १८८२ के अक मे "पश्चिमोत्तर और औष में हिन्दी की होन दशा" शीर्षक से जो टिप्पणी दी उसकी भाषा और उसके अर्थ दोनो ही दृष्टि में लाने योग्य है"इस बात को सब लोग मानते है कि हिन्दुस्तान में मुसल्मानो की अपेक्षा हिन्दू कहीं ज्यादा है और मुसलमानों में थोडे से शहर के रहनेवाले पढे-लिखे को छोड़ बाक़ी सब मुसल्मान हिन्दी ही बोलते है वरन दिहाती में बहुत से मुसल्मान ऐसे मिलते है जो उर्दू-फारसी एक अक्षर नहीं जानते । तो भी जनता " कभी रोके रुक सकती है किसके किसके गले में डाइरेक्टर साहब अँगुली देंगे कि तुम लोग अपनी मातृभाषा हिन्दी न वोलो |
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लेखक भली प्रकार जानता है कि हिन्दी का विरोध केवल शहर के ही पढे-लिखो के द्वारा है। उसकी भाषा इसीलिए गाँव की ओर झुकी हुई है और आवश्यकतानुसार उसने उर्दू-फारसी से भी शब्द लेने में कही सकोच नही किया ।
इसमे सन्देह नही कि इनके समय की भाषा में बहुत परिवर्तन हो गया है । आज इनके समय के अनेको शब्द प्रयोग के बाहर हो गये है, मुहाविरे तो जैसे भाषा में से उठ ही गए है। इनकी भाषा की कसोटी श्रौर स्रोत साधारण जनता थी, विशेषत ग्रामीण ।
यहाँ हम कुछ ऐसे शब्द देते हैं और मुहाविरे भी, जो श्राज काम में नही आते, प्रयोग से बाहर हो गये हैवाना-धना, छोन-दीन, ऐकमत्य, यावत, वगेत, करमफुटी, गॅजिया की गंजिया लुढ़क जाय, लेसा डेहुडा, चूडा थाना, जथा बाँधकर, पेट सुतुही सा है, यहीं ( मैं ही के लिए), खज्ज प्रखज्ज, छलकमियो, लोक लेते, गबडाकर, खपगी, शेर की भुगत, पत, कुकुरिहाव, आशय (निबन्ध के लिए), कचरभोग, सदुपदेशकी, ककेदराजी, अॅझिट, एतनी, केतनी, जेतनी, हेलवाई ।
इन कुछ थोडे शब्दो का सकलन अनायास ही किया है, श्रन्यथा तो पूरा एक कोण छाँटा जा सकता है। ऐसे शब्दो को छाँटने की श्रावश्यकता भी है, पर अपना प्रकृत उद्देश्य कुछ और है । इन शब्दो पर एक दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्याकरण की बात तो दूर, शब्दो के उच्चारण का भी कोई श्रादर्श (Standard ) नियम नही