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प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ
कालकाचार्य ने विहार किया था, जैसा पहले कहा जा चुका है। इस देश के लोग भैसो के सीगो की माला बनाते थे। मीहल (सिलोन) में कोकण देश की तरह समुद्र की लहरो से वाढ नही आती थी। भरत की दिग्विजय में इस देश का उल्लेख आता है। टकण मलेच्छ उत्तरापथ मे रहते थे और वे सोना, हाथीदांत आदि कीमती वस्तुएँ लेकर दक्षिण देश में व्यापार के लिए जाया करते थे। ये लोग दक्षिण की भाषा नहीं समझते थे। अतएव माल की कीमत तय करने के लिए उन्हें अनेक इशारो से काम चलाना पडता था । तगणो का उल्लेख महाभारत में आता है। आन्ध्र, द्रविड, कोकण, महाराष्ट्र, केकय आदि अनार्य देशो के विषय में पहले कहा जा चुका है। इसके अतिरिक्त प्रवड (-अवष्ठ, पारजिटर के अनुसार अवष्ठ लोग अवाला और सतलज के बीच के प्रदेश में रहते थे), आरवक (यह प्रदेश बलूचिस्तान के उत्तर मे अरविप्रोस नदी पर अवस्थित था), आलसड (एलेक्जेन्डिया), बब्बर (वारवैरिकम या वारवैरिकन), भडग (-भद्रक, यह जाति दिल्ली और मथुरा के मध्य में यमुना नदी के पश्चिम मे रहती थी भुत्तुत्र (भोटिय), चीन, चुचुक (डा. सिल्वेन लेवी के अनुसार यह प्रदेश गाजीपुर के पास अवस्थित था), गन्धार (पेशावर और रावलपिंडी के ज़िले),"हूण, काकविषय, कनक (ट्रावनकोर), खस (काश्मीर के नीचे वितस्ता घाटी की खास जाति)," खासिय (आसाम की आदिम जाति)," मुड (छोटा नागपुरकी एक जाति), मुरुड (डॉ० स्टाइन कोनोव के अनुसार मुरुड शक का एक प्रकार है जिसका अर्थ होता है स्वामी)। . पक्कणिय (फरधना जो पामीर अथवा प्राचीन कवोज के उत्तर में था), रमढ (यह प्रदेश गजनी (जागुड) और वस्वान के मध्य मे स्थित था), वोक्कण (वखान) आदि अनार्य देशो का उल्लेख जैन-ग्रथो में मिलता है। इन सव का गवेषणापूर्ण अध्ययन होने से भारत के प्राचीन इतिहास पर काफी प्रकाश पड सकता है। वम्बई]
'निशीथ चूणि, ७, पृ० ४६४ 'प्राचाराग टीका, ६३, पृ० २२३ । 'प्रावश्यक चूर्णि, पृ० १६१ 'श्रावश्यक टीका (मलय), पृ० १४० प्र। "मार्कण्डेय पुराण, पाजिटर, पृ० ३७६ 'मैकक्रिन्डल्स दी इनवेजन ऑव इन्डिया, पृ० १६७ " इन्डियन हिस्टोरिकल क्वार्टी, १९३६, पृ० १२१ 'एशिएन्ट ज्यॉग्रफी प्रॉव इन्डिया, पृ० ६९३ 'मार्कण्डेय पुराण, पाजिटर, पृ० ३०६ - " मेमोरियल सिल्वन लेवी, १९३७, पृ० २४२-३ "ज्यांग्रफिकल डिक्शनरी, डे, पु० ६० १२ वही, पृ० १८ "राजतरगिणी, जिल्द २, स्टाइन, पृ० ४३० "देखिए इम्पीरियल गजेटियर "खासिय" शब्द । "ट्राइस प्राव एशिएन्ट इन्डिया, पृ० ६४ नोट "जरनल प्रॉव यू०पी० हिस्टोरिकल सोसायटी, जिल्द १६, भाग १, पृ० २८ "वही, जिल्द १५, भाग २, पृ० ४६