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________________ ४१० प्रेमी-अभिनवन-प्रथ आदि के उपयोग की प्रथा थी। कवि यहाँ सन्यासाश्रम के ब्रह्मज्ञान को सर्वश्रेष्ठता और सर्वोच्च कर्तव्यता बतलाने के लिए कहता है कि जब ब्रह्मज्ञान होता है तो पहिले के तीनो आश्रमो के कर्तव्य और विधान स्वयमेव अनुपयोगी बन करके फट जाते है । ब्रह्मज्ञान होने के बाद को प्रात्मदशा का वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि उस समय आत्मा मैंप्रथम पुरुप या अन्य-तृतीय पुरुष नहीं रहता है, तथा उसमें महत्ता और कनिष्ठता का भाव भी नही रहता है, वह सामान्य और विशेष दोनो प्रकारो से पर हो जाता है। ब्रह्मज्ञान जनित आत्मस्थिति का यह वर्णन निर्गुण और द्वद्वातीत भूमिका सूचित करता है । ज्ञानप्रधान उपनिषदो में और ज्ञानयोगप्रधान गीता के वचनो मे इसी प्रकार आत्मज्ञान का माहात्म्य वर्णित है। नैन मत्वा शोचते नाभ्युपैति नाप्याशास्ते म्रियते जायते वा। नास्मिल्लोके गृह्यते नो परस्मिन् लोकातीतो वर्तते लोक एव ॥३०॥ अर्थ-परमात्मा को जानने के बाद ज्ञाता न तो शोक करता है और न कुछ प्राप्त करता है, वह प्राशा का भी सेवन नहीं करता है, नहीं मरता है और नहीं जन्म लेता है, वह इस लोक या परलोक में पकडा नहीं जाता है । वह लोकातीत होने पर भी लोक में ही रहता है। भावार्थ-कवि ने यहाँ जीवनमुक्त ब्रह्मज्ञानो की दशा का वर्णन किया है। वह ज्ञानी, लोगो के बीच में रहता है फिर भी वह साधारण लोगो के शोक, हर्ष, आशा, जन्म, मृत्यु और ऐहिक-पारलौकिक बन्धन से पर होकर लोकातीत वन जाता है। ऐसी स्थिति प्राप्त करने के मुख्य साधन के रूप में यहाँ आत्मज्ञान का ही निर्देश किया है। गोना मे ऐसे जोवनमुक्त पुरुष की दशा का अनेक प्रकार से वर्णन है। कठ के 'मत्वा धीरो न शोचति' (४ ४) तथा 'न जायते म्रियते वा विपश्चित्' (३ १८) इन शब्दो का तो प्रस्तुत पद्य मे पुनरवतार हुआ हो ऐसा भासित होता है । यस्मात् पर नापरमस्ति किञ्चिद् यस्मानाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित् । वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येक तेनेद पूर्ण पुरुषेण सर्वम् ॥३१॥ अर्थ-जिससे पर या अपर कोई नहीं है। जिससे कोई छोटा या बडा नहीं है, जो अकेला द्यूलोक में वृक्ष की तरह निश्चल स्थित है उस पुरुष से यह सब परिपूर्ण है। भावार्थ-यहाँ लौकिक वस्तुओ से परमात्म पुरुष को विलक्षणता ही विरोधाभासी वर्णन द्वारा व्यक्त हुई है। ईशावास्य मे 'त(रेतद्वन्तिके' (५) शब्द से और कठ मे 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' (२ २०) तथा छादोग्य में 'एप म आत्माऽन्तहृदयेऽणीयान् ज्यायान्' (३ १४ ३) शब्द से विधिमुख द्वारा जो भाव प्रतिपादित हुआ है वही भाव यहाँ कवि ने श्वेताश्वतर का (३ ९) सारा पद्य जैसा का तैसा लेकर के व्यतिरेक मुख से पूर्वाध में सूचित किया है। अतिम पाद 'येन सर्वमिद ततम्' (गीता ८ २२) की प्रतिध्वनि है। नानाकल्प पश्यतो जीवलोक नित्यासक्ता व्याधयश्चाधयश्च । यस्मिन्नेव सर्वत सर्वतत्त्वे दृष्टे देवे न पुनस्तापमेति ॥३२॥ अर्थ-जीवलोक का नानारूप से दर्शनकरने वाले को प्राधियों और व्याधियां सदैव लगी रहती है। परन्तु पूर्वोक्त प्रकार से सव ओर सर्वतत्त्वरूप जो देव है उसका दर्शन होते ही द्रष्टा फिर सताप को प्राप्त नहीं होता है। भावार्थ-यहाँ कवि ने पहले के सभी पद्यो मे समूचे रूप से परमात्मा के अद्वैत स्वरूप का वर्णन किया है। इमलिए वह उपनिपदो और गोता की तरह द्वैत और अद्वैत ज्ञान की फलश्रुति रूप से भेदज्ञान से सताप और अभेदज्ञान से सताप का प्रभाव वर्णन करता है। छादोग्य के 'तरति शोकमात्मविद्' (७ १ ३) इस सक्षिप्त वाक्य मे आत्मज्ञान को फलश्रुति और अर्थापत्ति से भेदज्ञानजन्य सताप का सूचन है । उसी भाव का कवि ने यहाँ अधिक स्पष्टता से वर्णन किया है। [ गुजराती से अनूक्ति बबई]
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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