________________
६१४
x
X
प्रेमी-अभिनदन-प्रय कूरा, माटी, भनौ फिरत है, इतै उतै मन हीरा; कमती आ गई रकत मांस में, बही व्रगन सें नीरा; फुकत जात विरह की प्रागी, सूकत जात सरीरा, प्रोई नीम में मानत 'ईसुर', पोई नीम को कीरा।
फिरतन परे पांव में फोरा,
सग न छोडों तोरा; घर घर अलख जगावत जा, टंगो केंदा पं झोरा, मारी मारो इत उत जावै, गलियन कैसो रोरा, नई रव मांस, रकत देही में, भये सूफ के डोरा,
फसकत नई 'ईसुरी' तनफउँ, निठुर यार है मोरा। विरहिणी नायिका के मुंह से आप कहलाते है कि वैरिन वर्षा ऋतु आ गई है। हमारी भलाई तो इसी में है कि उसके द्वारा प्रशसित उपादानो का हम त्याग ही करें। यथा
हम पै बैरिन वरसा आई,
हमें, बचा लेव माई चढ़ के अटा, घटा ना देखें, पटा देव अगनाई; बारादरी दौरियन में हो, पवन न जावे पाई; जे द्रुम कटा, छटा फुलबगियां, हटा देव हरयाई; पिय जस गाय सुनाव न ईसुर',जो जिय चाव भलाई
मोरे मन की हरन मुनयाँ,
आज दिखानी नयां के कऊँ हुये लाल के सङ्ग, पकरी पिंजरा मइयां, पत्तन पत्तन ढूंड फिरे है, बैठी कौन डरयां;
कात 'ईसुरी' इनके लानें, टोरीं सरग तरयां । मनुष्य-शरीर की असारता को लक्ष्य करके उन्होने कहा है
बखरी रईयत है भारे की,
दई पिया प्यारे की कच्ची भीत उठी मांटी की, छाई फूस चारे की बे बवेज बडी बेबाडा, जेई में दस द्वारे की किवार किवरिया एको नइयां, बिना कुची तारे की 'ईसुर चाये निकारो जिदनां, हमें कौन ड्वारे की X
X इन गीतो के सम्बन्ध मे जितना भी लिखा जाय, थोडा है। हर्ष है कि इनके सास्कृतिक और वैज्ञानिक विश्लेपणता के लिए शिक्षित समुदाय उद्योग कर रहा है। इससे हमारा और हमारी मातृभाषा हिन्दी का हित ही होगा, ऐसी आशा है। झासी]
x
X