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कौटिल्य-कालीन रसायन
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चर्म और ऊन कोटित्य की दृष्टि मे चर्मणा मृदु स्निग्ध बहुल रोम च श्रेष्ठम् (२११।१०१) अर्थात् श्रेष्ठ चर्म वह है जो मृदु, स्निग्ध और अधिक रोम वाला हो। स्थानादि भेद से चर्म की अनेक जातियो का विवरण दिया गया है जैसेकान्तनावक, प्रेयक, विमी, महाविसी, श्यामिका, कालिका, कदल, चन्द्रोत्तरा, शाकुला, सामूर, चीनसी, सामूली, सातिना, नलतूला और वृत्तपुच्छा। इन चमडो के रग और माप का वर्णन भी दिया गया है (२११११७७-१०१)। मुझे आशा थी कि कच्चे चमडे को किस प्रकार पकाठे इसका भी कही उल्लेख मिले पर यह पूर्ण न हुई। रसायनशास्त्र की दृष्टि से यह उल्लेख अधिक महत्त्वपूर्ण होता।
कौटिल्य ने ऊन के सम्बन्ध मे लिखा है कि पिच्छलमामिव च सूक्ष्म मृदु च श्रेष्ठम्।। अर्थात् चिकना, गोल सा प्रतीत होने वाला सूक्ष्म और कोमल ऊन अच्छा माना जाता है। ऊन से बने अनेक वस्त्रो का भी उल्लेख है (२१११११०२-१११)। इसी प्रकार एक सूत्र मे काशिक और पौड्रक रेशमी वस्त्र का निर्देश है। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण निर्देश पत्रोों का है। इनके तीन भेद है-मागधिक, पौंड्रिक और सौवर्ण ऋडयक। ये ऊनें नागवृक्ष, लिकुच, वकुल और वट वृक्ष पर होती है । सम्भवत ये ऊने इन वृक्षो पर रहने वाले कीटो द्वारा तैयार की जाती है । कौशेय, चीनण्ट्ट और चीनभूमिजा (चायना सिल्क) का भी निर्देश महत्त्व का है (२।११।११९)।
विषपरीक्षण कूटनीति ग्रस्त राष्ट्रो मे शत्रुओ पर विषप्रयोग करना साधारण घटना हो जाती है। अपने पक्ष का व्यक्ति जव सहसा अस्वाभाविक अवस्था में प्राणत्याग करता है, तब यह सन्देह हो जाता है कि उस पर किमी ने विषप्रयोग तो नही किया। कौटित्य कहते है कि
श्याव पाणि पाद दन्तनख शिथिलमासरोमचर्माण फेनोपदिग्धमुख विषहत विद्यात् ॥ ४७८ ॥
अर्थात् जिसके हाथ, पैर, दाँत, नख काले पड गये हो, मास, रोम और चर्म ढीली पड़ गई हो, मुह झागो से भरा हो, उसे विप से मारा समझो। फिर लिखने है कि विपहतस्य भोजनशेप पयोभि परीक्षेत्-अर्थात् उस विषहत व्यक्ति का शेप भोजन दूध से जाँचो (४१७१२)। पोस्ट मार्टेम परीक्षा (गव-परीक्षा) की जावे
हृदयादुद्धत्याग्नी प्रक्षिप्त चिटचिटायदिन्द्रधनुर्वणं वा विषयुक्त विद्यात् ॥ ४७१३ ॥
अर्थात् मरे हुए व्यक्ति का हृदय अग्नि में डाला जाय । यदि उसमे चटचट शब्द पीर इन्द्र धनुष का रग निकले तो उसे विषयुक्त समझे। आजकल भी तावे और सखिये के विष की पहचान ज्वाला का रग देख कर भी की जाती है। ज्वाला मे कमा रग किस प्रकार के लवणो से आता है इसका विस्तृत निश्चय आधुनिक रमायनशास्त्र में हो चुका है।
___ पहले अधिकरण के २१वे अध्याय मे कौटिल्य ने विषपरीक्षण के विविध प्रकारो का उल्लेख किया है। इन प्रकारो मे ज्वालापरीक्षण और धूम्रपरीक्षण विशेष महत्त्व के है ।
अग्नालाघूम नोलता शब्द स्फोटन च विषयुक्तस्य वयसा विपत्तिश्च । (०२१६१०)
अयात् यदि भोजन में विष मिलाहो तो अग्नि मे उसकी लपट नीली और धुआं भी नीला निकलेगा। अग्नि मे चटचट शब्द भी होगा। यदि पक्षी उसे खायेगा तो वह उसी समय तडफडाने लगेगा। हम जानते है कि तांबे के लवण ज्वाला को हरा-नीला मिश्रित रग प्रदान करते है और सीसा, सखिया (आरसेनिक) और आञ्जन (एटीमनी) के लवण ज्वाला को हलका नीला रग देते है। सामान्य विषो में वहुधा इन्ही लवणो का प्रयोग होता है। कौटिल्य के विपपरीक्षण का यह प्रकार रसायन की दृष्टि से विशेष महत्त्व का है ।