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प्रेमी-अभिनवन - ग्रथ
प्रवृत्ति मे आवश्यकता, सादगी, स्वच्छता, सच्चाई श्रादि बातो पर ध्यान रसने का उपदेश देना इन बातो की उपयोगिता काही दिग्दर्शक है ।
इस प्रकार जैन समाज जहाँ इस बात पर गर्व कर सकती है कि उसकी मान्यता मे मानव-जीवन की छोटी-छोटी श्रीर वडी-से-वडी प्रत्येक प्रवृत्ति को धर्म और अधर्म की मर्यादा में वॉकर विश्व को सुपथ पर चलने के लिए सुगमता पैदा की गई है, वहाँ उसके लिए यह वडे सताप की बात है कि उन सब बातो का जैन समाज के जीवन में प्राय प्रभाव मा हो गया है श्रोर दिन प्रतिदिन होता जा रहा है तथा जैन समाज की क्रोधादि कपायम्प परिणति
हिमादि पापमय पवृत्ति श्राज शायद ही दूसरे समाजो की अपेक्षा कम हो । जो कुछ भी धार्मिक प्रवृत्ति श्राज जैन समाज में मौजूद है वह इतनी श्रव्यवस्थित एव श्रज्ञानमूलक हो गई है कि उम प्रवृत्ति को धर्म का रूप देने में मकोच होता है ।
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मा पूर्वोक्त धर्म को अपने जीवन में न उतारने की यह एक बुराई तो वर्तमान है ही, इसके प्रतिरिक्त दूसरी बुराई जो जैन ममाज में पाई जाती है, वह है खाने-पीने इत्यादि मे छुग्रा-छूत के भेद की । जैन गमाज में वह व्यक्ति अपने को मवसे अधिक धार्मिक समझता है, जो खाने-पीने आदि में अधिक-से-अधिक छुआ-छूत का विचार रसता हो, परन्तु भगवान ऋषभदेव द्वारा स्थापित और शेप तीर्थंकरो द्वारा पुनरुज्जीवित धर्म में इस प्रकार के छुआछूत को कतई स्थान प्राप्त नही है । कारण कि धर्म मानव-मानव में भेद करना नहीं मिसलाता है और यदि किसी धर्म से ऐसी शिक्षा मिलती हो तो उसके बरावर श्रधर्म दुनिया में दूसरा कोई नही हो सकता । हम गर्वपूर्वक कह सकते हैं कि जैन तीर्थकरो द्वारा प्रोक्त धर्म न केवल राष्ट्रवर्म ही हो सकता है, श्रपितु वह विश्वधर्म कहलाने के योग्य है । परन्तु छुआछूत के इस सकुचित दायरे मे पडकर वह एक व्यक्ति का भी धर्म कहलाने योग्य नही रह गया है, क्योकि यह भेद केवल राष्ट्रीयता का ही विरोधी है, बल्कि मानवता का भी विरोधी है श्रोर जहाँ मानवता को स्थान नही, वहाँ धर्म को स्थान मिलना असंभव ही है ।
यद्यपि ये सब दीप जैन समाज के समान अन्य धार्मिक समष्टियो मे भी पाये जाते हैं, परन्तु प्रस्तुत लेख केवल जैन मान्यता के अनुसार प्रतिपादित धर्म के बारे में लिखा गया है । इसलिए दूसरी धार्मिक ममप्टियो की ओर विशेष ध्यान नही दिया गया है। हमे आश्चर्य होता है कि क्या जैन समप्टि और क्या दूसरी धार्मिक रामप्टियाँ, सभी अपने द्वारा मान्य धर्म को ही राष्ट्रधर्म तथा विश्वधर्म कहने का साहस करती है, परन्तु उनका धर्म किस ढंग से राष्ट्र का उत्थान एव विश्व का कल्याण करने में सहायक हो सकता है और हमे इसके लिए अपनी वर्तमान दुष्प्रवृत्तियो के कितने वलिदान की जरूरत है, इसकी ओर किसी का भी लक्ष्य नही है ।
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