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ऋग्वेद में सूर्या का विवाह
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चार और मन्त्र (४३-४६ ) आशीर्वादात्मक हैं, जो सायण के अनुसार उस समय बोले जाते है, जव वर वधू सहित अपने घर आकर यज्ञ करता है । वे मन्त्र इस तरह है
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श्रान प्रजा जनयतु प्रजापति राजरसाय समनत्वर्यमा । अदुर्मङ्गली. पतिलोकमाविश शन्नो भव द्विपदेश चतुष्पदे ॥ (ऋ० १०१६८५२४३) अघोर चक्षुरपतिघ्न्येधि शिवा पशुभ्य सुमना सुवर्चा | वीरसूदेवकामा स्योना शन्नो भव द्विपदेशं चतुष्पदे ॥ (ऋ० १०१६८५२४४) इमां त्वमिन्द्र मीढ्व सुपुत्रां सुभगां कृणु । देशास्या पुत्रानाघेहि पतिमेकादश कृधि ॥
(ऋ० १०१८५२४५) सम्राज्ञी श्वसुरे भव सम्राज्ञी श्वश्वा भव । ननान्दरि सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी श्रधिदेवृषु ॥ (ऋ० १०२८५/४६ )
प्रजापति हमें सन्तान दें । श्रर्यमा वृद्धावस्था तक मिलाये रक्खें, श्रमगलो से सर्वथा रहित (हे वधू) तुम पति के घर में प्रवेश करो और घर के द्विपदो और चतुष्पदो के प्रति, अर्थात् मनुष्यो और पशुओ के प्रति कल्याणमयी होय ॥४३॥
तुम्हारे नेत्र कभी रोषपूर्ण न होवें, तुम पति का अनिष्ट न सोचो। पशुओ के प्रति (भी) कल्याणमयी तुम 'सुवर्चा' अर्थात् ओजस्विनी पर साथ ही 'सुमना' मधुर स्वभाव वाली होग्रो, वीरो को जन्म देने वाली, देवताओ की पूजा करने वाली, प्रसन्न स्वभाव वाली, मनुष्यो और पशुओ के प्रति कल्याणमयी हो ॥ ४४ ॥
हे वर्षक इन्द्र, इसको सुन्दर पुत्रो से युक्त सौभाग्य वाली बनाओ । उसके दश पुत्र हो और पति ग्यारहवाँ ॥४५॥ हे बघू, तुम श्वगुर के ऊपर सम्राज्ञी होग्रो, और सास के ऊपर भी सम्राज्ञी । ननद पर सम्राज्ञी और अपने
देवरो के ऊपर भी ।
इन चारो मन्त्री से वैदिक गार्हस्थ जीवन की झलक स्पष्ट दिखाई देती है । गृहिणी सच्चे अर्थों में घर की स्वामिनी है । शासन करने के लिये उसका 'सुवर्चा' ओजस्विनी होना आवश्यक है, पर साथ ही उसे 'सुमना' प्रसन्न मधुर स्वभाव का भी होना चाहिए । अतएव ४३ और ४४वें मन्त्र का ध्रुवपद है कि "हे गृहिणी, मनुष्यो और पशुओ के प्रति कल्याणमयी होत्रो ।"
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इस प्रकार विवाह-सस्कार - सवधी सभी मुख्य-मुख्य मन्त्रो पर दृष्टिपात किया गया है । यह कह देना श्रावश्यक है कि इस सूक्त के तीन अग हम विना विचार किए छोड देते हैं, क्योकि उनके लिए न तो इस लेख में जगह है और न उन बातो पर अभी तक पर्याप्त प्रकाश ही पड सका है । वे अश निम्नलिखित है
(१) सूर्या का रथ पर बैठ कर पति के घर जाना, इसका वर्णन इस सूक्त के १२, २० और ३२वे मन्त्र
है ।
(२) सूर्या रूप वधू का सोम, गन्धर्व और अग्नि के द्वारा मनुष्य पति को पाना और विशेषकर विश्वावसु गन्धर्व का इस विषय में कार्य (२१-३२, ३८-४१ मन्त्रो में) ।
(३) वधू के वस्त्रो के सबध में कृत्या का वर्णन, जो कि अभी तक विल्कुल अस्पष्ट है (२८-३१, ३४, ३५ मन्त्रो में ।
मेरठ ]
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