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________________ २४८ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ के बाद जब जैनधर्म से दिगम्बर श्वेताम्बर शाखाएं फूटी तो श्वेताम्बर देवनिर्मितस्तूप को ही मानते रहे, लेकिन दिगम्बरो ने मथुरा के किन्ही पांच स्तूपो को अपना मानकर उनके नाम पर एक निकाय चला दिया और देवनिर्मितस्तूप की प्राचीन अनुश्रुति को एक नया रग देकर एक देवनिर्मित स्तूप की जगह पांच स्तूप कर दिये। फिर भी सव दिगम्वरो ने इसे न माना, जैसा सोमदेव के यशस्तिलक से मालूम होता है। अभी तक हम स्तूप सम्वन्धी अनुश्रुतियो की जांच करते रहे है और उनसे यह पता चलता है कि स्तूप का नाम देवनिर्मित स्तूप था। वाद मे मतान्तर होने पर दिगम्बरो ने उसी स्तूप को या आस-पास के पांच स्तूपो को पचस्तूप नाम दिया। व्यवहारभाष्य से यह भी पता चलता है कि स्तूप पर वौद्धो ने छ महीने दखल कर लिया था जो वाद मे राजा को न्यायप्रियता से जैनो को लौटा दिया गया। दिगम्वरो की स्तूप सम्बन्धी अनुश्रुतियो से यह ध्वनि निकलती है कि बौद्धो ने जिनपूजा में कुछ गडवड की और राजा भी उनके पक्ष में था। चैत्य की रक्षा इन अनुश्रुतियो के अनुसार देवताओ ने की। स्तूप सम्बन्धी अनुश्रुतियो की भरपूर जांच कर लेने के बाद अब हमें देखना चाहिए कि पुरातत्त्व मथुरा के जैनस्तूप पर क्या प्रकाश डालता है । कनिंघम, पाउस और फुहरर की खोजो से यह पता चल गया कि मथुरा के दक्खिन-पच्छिम कोने में स्थित ककालीटीलाही प्राचीन काल में मथुरा का जैनस्तूप था,क्योकि वहाँ से स्तूप का भग्नावशेष वहुत सी जैन-मूर्तियां, आयागपट्ट और उत्कीर्ण लेख पाये गये। सन् १८६०-६१ की खुदाई में डा० फुहरर को एक टूटी मूर्ति की बैठक पर एकलेख मिला, जिसमे इस बात का उल्लेख है कि श्राविका दिना ने कोट्टियगण और वैरशाखा के अनुयायी प्राचार्य वृद्धहस्ति की सलाह से अरहत् नन्द्यावर्त की प्रतिमा देवनिर्मित वोद्व स्तूप मे स० ७६ में स्थापित को (स्मिथ, वही, पृ० १२)। इस अभिलेख की विशेषता यह है कि पुरातत्त्व की दृष्टिकोण से देवनिर्मित स्तूप का नाम सबसे पहले इसी लेख में मिलता है और इससे मथुरा के देवनिर्मित जैनस्तूप वाली प्राचीन अनुश्रुति की सचाई की भी पुष्टि होती है । डा० स्मिथ के मतानुसार इस लेख से, जो शायद १५७ ई० के वाद का नहीं है, यह पता चलता है कि उस समय तक स्तूप इतना अधिक पुराना हो चुका था कि लोग उसके वनाने वाले का नाम भूलकर उसे देवनिर्मित कहन लगे थे। इस बात से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि शायद स्तूप ईसा के कई मदियो पहले वना और शायद पुराने से पुराने बौद्धस्तूप के इतना पुराना वह रहा होगा (वही, पृ० १३)। इस स्तूप से श्री० ग्राउस को कई वौद्धमूर्तियां मिली (ग्राउस, मथुरा, पृ० ११६-११८, तृतीय सस्करण, १८८३) लेकिन ऐसा होना आश्चर्यजनक था, क्योकि ककाली टीला वास्तविक रूप से जैन-स्थान है और ऐसी जगह बौद्ध मूर्तियाँ कैसे आई यह किसी के समझ मे नही प्राता था, क्योकि बौद्धो और जैनो की धार्मिक प्रतिस्पर्धा बडे प्राचीन काल से चली आई है। डा० वुहलर ने फुहरर के पत्र का हवाला देते हुए लिखा है कि डा० फुहरर ने कंकाली टीला की खुदाई में कई मतो के धार्मिक चिह्नो को पाया, जिनमे दो जैन मन्दिर और बौद्ध स्तूप थे (जी० बुहलर, वियेना जर्नल, ४, पृ० ३१३-१४)। लगता है कि डा० वुहलर किसी तरह ककाली टीले से मिले हुए ईट के बडे स्तूप को वौद्ध स्तूप समझ गये, पर वास्तव में वह जैन है । डा० फुहरर ने डा० बुहलर को जो पत्र लिखा था उसमें बौद्ध स्तूप का जिक्र नही है (वही, पृ० १६६) । डा० बुहलर कथित बौद्ध स्तूप पाये जाने के आधार पर इस सिद्धान्त को पहुँचे कि ककाली टीला के ऊपरी स्तरो से जैन और बौद्ध मूर्तियो का मिलना वहाँ बौद्ध स्तूप का होना साबित करता है । अभाग्यवश डा० फुहरर ने ककाली टोला की खुदाई इतनी अवैज्ञानिक ढग से की है कि यह कहना विलकुल असम्भव है कि बौद्ध मूर्तियां टीले के किस भाग से मिली और उनका किसी इमारत विशेष से सम्वन्ध था या नहीं, लेकिन ककालीटीला से मिली हुई वौद्ध मूर्तियो की कम सख्या इस बात को बतलाती है कि कम-से-कम ककाली टीला पर वौद्ध प्रभाव थोडे ही दिनो के लिए था और उस थोडे से समय में या तो वौद्धों ने अपना कोई चैत्य वनवा लिया होगा या जवर्दस्ती किसी जैन चैत्य पर अपना अधिकार जमा कर उसमें बौद्ध मूर्तियां बैठा दी होगी। व्यवहारभाष्य की अनुश्रुति से इस भेद का पता साफ-साफ लग जाता है । अनुश्रुति में यह बात स्पष्ट है कि देवनिर्मित स्तूप बौद्धो के कब्जे में छ महीनो तक रहा और बौद्ध
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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