________________
उपेक्षित बाल-साहित्य
श्री खद्दरजी और दबाजी हमारे भारतीय परिवारों में जिस प्रकार बच्चे उपेक्षित रहते है, उसी प्रकार हिन्दी-साहित्य में वाल-साहित्य उपेक्षित है। हमें यह लज्जापूर्वक स्वीकार करना पड़ता है कि हिन्दी में वाल-साहित्य का जितना अभाव है, उतना गायद ही किमी प्रान्तीय भापा मे हो । गुजराती का वाल-साहित्य तो इतना समृद्ध है कि देखकर जी आनन्दित हो उठता है । इस अभाव का एक कारण तो यह भी है कि बच्चो के अभिभावक इस ओर से अत्यन्त उदासीन है। उस रोज हम लोग दिल्ली के घटाघर के पास तांगे की तलाश में खडे थे। इतने मे एक मोटर वहाँ आकर रुकी। उसमे चार-पांच बच्चे थे और एक प्रौढ, जो उनके पिता प्रतीत होते थे। बच्चो ने हमारे हाथ मे वालको की कुछ पुस्तकें देखी। उनकी निगाह उन पर जम गई। पिता उन्हें फल और मिठाई खिलाना चाहते थे। बच्चे वाल-साहित्य के भूखे थे। पिताजी खाने का मामान लेने चले गये तो वच्चो ने मोटर से उतर कर हमे घेर लिया। वोले, “ये किताबें वेचते हो ?" हम उत्तर दे कि तवतक उन्होने जेव से पैसे निकाल कर इकट्ठे कर लिये। उनका ध्यान पुस्तको पर केन्द्रित था, पर भयभीत नेत्रो मे वे वार-बार पिता जी की ओर देख लेते थे। हमने उन्हें पुस्तकें विना पैसे लिये दे दी और वे तेजी से कार में जा बैठे। पिता जी आये और गाडी मे बैठ गये। वच्चो के हाथ में जव उन्होने पुस्तके देखी तो फटकार करवोले, "इनमें क्या रक्खाहै ? क्या फल और मिठाई से भी ज्यादा तुम्हें ये किताव पसन्द है ?" पिताजी कोष प्रकट कर रहे थे और हम खडे-खडे सोच रहे थे कि जिस देश में वडे-बूढे आदमी बच्चो की मानसिक भूख को नही समझ सकते, उस देश के उज्ज्वल भविष्य की कल्पना कैसे की जा सकती है? .
दिल्ली के एक सेठ जी को हम लोग विदा करने स्टेशन गये थे। उन्होने रास्ते मे पढने के लिए रेलवे वुक-स्टॉल से कुछ पुस्तकें मंगवाई। बच्चो ने देखी तो उन्होने भी अपने मतलव की कुछ पुस्तको की मांग की। सेठ जी ने पुन नौकर भेजा। थोड़ी देर में वह लौटा तो खाली हाथ । सेठ जी ने पूछा, “क्यो, कितावें नहीं लाये?"
नौकर ने उत्तर दिया, "अग्रेजी में तो है, पर नागरी मे बच्चो की एक भी किताव नहीं मिली।"
गार्ड ने सीटी बजाई और गाडी चल दी। सेठ जी नमस्कार कर रहे थे। हम लोगो ने भी हाथ जोड दिये, लेकिन हमारी आँखें उन डवडवाये नेत्रो को देख रही थी, जिनमें बडे-बडे लेखको के लिए भारी रोष था कि वे मोटेमोटे पोथे तो लिखते है, किन्तु कभी यह नहीं सोचते कि वटो की दुनिया के अतिरिक्त एक नन्ही दुनिया भी है, जिसमें मानमिक भूख से वच्चे दिनरात तडप रहे है। उस सात्विक क्रोध का, जो उन डवडवाई आँखो में था, क्या हम कभी प्रतिकार कर सकेंगे? शिक्षक वरावर इम कमी को महसूम करते है, पर वे किससे कहे ? देश के प्रकाशक और लेखक वाल-साहित्य को आवश्यक ही नहीं समझते। उन्हें शिकायत है कि हिन्दी में पुस्तकें कम विकती है, लेकिन कभी उन्होने इसके कारण पर भी ध्यान दिया है ? बच्चो को छोटी आयु से ही पुस्तकें पढने को मिलें तो कोई वजह नही कि आगे चलकर उनकी किताव पढने की आदत छट जाय। कठिनाई तो यह है कि बच्चो में पढते की आदत को पनपने देना तो दूर, उसे कुचल दिया जाता है। अत कल के बच्चे और आज के प्रौढ मे पुस्तको के प्रति अनुराग उत्पन्न हो तो कैसे ? यह कहना तो व्यर्य है कि हिन्दी जानने वालो की सख्या कम है । यदि लेखक तथा प्रकाशक वाल-साहित्य की ओर ध्यान देकर सुन्दर एव वैज्ञानिक वाल-साहित्य का निर्माण करे और बच्चो में उसके लिए रुचि पैदा कर दें तो हम देखेंगे कि यही वच्चे प्रौढ होकर भोजन और वस्त्र के समान पुस्तको पर भी खर्च करना आवश्यक समझेगे। तव निस्सन्देह वडी पुस्तकों का भी प्रचार धडल्ले के साथ होगा। हमारा निश्चित मत है कि जिस प्रकार विना जड